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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२१८ बाण भट्ट की आत्म-कथा धीरे शान्त वाणी में पूछा --‘महाराज, आप इस जम्बू द्वीप के सर्व- प्रधान चक्रवर्ती राजा हैं। आपको सद्बुद्धि से प्रजा का कल्याण होगा। तथागत की बताई हुई धर्म-देशना आपने सुनी है । मैं पूछता हूँ महाराज, क्या आपको सन्तोष हुआ है ? आपके चित्त में मैत्री और करुणा के धर्म के विषय में कोई सन्देह तो नहीं रह गया है ? महाराज ने प्राचार्य को शिरसा प्रणाम किया। थोड़ी देर तक वे निश्चल प्रतिमा की भाँति ध्यानावस्थ हो रहे। फिर दोनों हाथ जोड़ कर अनुमति माँग-'तो अाचार्यपाद की अनुमति है ? आचार्य ने फिर मन्द स्मित के साथ साधुवाद देते हुए कहा- ‘अवश्य महाराज !' । महाराजाधिराज ने विनीत भाव मे प्रश्न किया---'हे भदन्त-प्रवर, कई दिनों से कुछ तैथिक यतियों ने मुझसे भगवान् बुद्ध के पूजा ग्रहण करने के सम्बन्ध में प्रश्न किए हैं। मैं उनका उत्तर नहीं दे सका हूँ। और मेरा चित्त उन प्रश्नों पर मनन करने के बाद उतक्षिप्त हो गया है ! यदि अविनय न समझे, तो पूछ ।' आचार्य ने उत्साहपूर्वक कहा---'अवश्य पूछिए, महाराज ! शंकाशल्य को चित्त से उखाड़ फेंकना ही उचित हैं। भगवान् तथा गत का धर्म अन्धश्रद्धा पर प्रतिष्ठित नहीं है । वह युक्ति और विचार का अविरोधी है, इसीलिए वह सद्धर्म है । 'तो श्राचार्यपाद, अनुग्रहपूर्वक बतादें कि बुद्ध निर्वाण प्राप्त होने के बाद भी पूजा कैसे ग्रहण करते हैं ? दो बातें हो सकती हैं। प्रथम यह कि बुद्ध पूजा ग्रहण करते हैं। ऐसी अवस्था में लोक के साथ उनका संयोग हैं, वे भव के ही अन्तर्गत हैं और दस और मनुष्यों की भाँति एक साधारण व्यक्ति हैं । फिर उनकी पूजा निकल हो जाती है, वन्ध्य सिद्ध होती है। दूसरी बात यह हो सकती है कि वे परिनिर्वाण प्राप्त कर गए हैं, लोक के साथ उसका कोई ससव नहीं है, वे भव से