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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२२० बाण भट्ट की अात्मकथा महाराज, भगवान् भी दस सहस्त्र लोक के ऊपर बुद्ध-लक्ष्मी द्वारा प्रज्वलित होने के पश्चात् निरवशेष निर्वाण द्वारा परिनिर्वाण प्राप्त हुए थे । महाराज, जिस प्रकार निर्वाण-प्राप्त श्रग्नि तृण काठ आदि इन्धनको नहीं ग्रहण करती, उसी प्रकार लोक हितकारी भगवान् भी कुछ परिग्रहण नहीं करते। परन्तु जिस प्रकार महाराज, इन्धनहीन अग्नि के निर्वाण-प्राप्त होने पर मनुष्यगण अपने-अपने उद्यम से अग्नि उत्पन्न करके अपना-अपना कार्य सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार देव और मनुरुधगण परिनिवा-प्राप्त तथागत के धातुरनों से स्तुपादि निमगि करके शीलादि का अनुष्ठान करते हैं और सम्पति-त्रय प्राप्त करते हैं । इस प्रकार महाराज, यद्यपि तथागत कुछ भी ग्रहण नहीं करते, तथापि उनके उद्देश्य से निवेदित पूजा सफल होती है, अबन्ध्य होती है ! प्राचार्य की स्थापना सीधी, मधुर और प्रभावोत्पादक थी । श्रतों में अधिकांश बौद्ध श्रमण थे, उन्होने एक स्वर से साधुवाद दिया-धन्य हो महास्थविर सुगतभद्र ! अद्भुत है, भदन्त यह स्था- पना ! आश्चर्य है, भदन्त, यह धर्म देशना !! परन्तु राजा के मुख पर कोई विशेष उल्लास नहीं दिखाई दिया। वे कुछ सोचने में उलझे हुए जान पड़ते थे । आचार्यपाद ने समझा । बोले---‘तुम यही कह रहे हो न महाराज कि जो पूजा ग्रहण नहीं करता, उसके उद्देश्य से अनुष्ठित पूजा निष्फल है ? “हाँ, आचार्य ! ‘अच्छा महाराज, महान् वायु बह जाने के बाद जब उपरत- उपशान्त हो जाती है, तो उसकी वायु-संज्ञा हो सकती है ? | ‘ना भदन्त ! तालवृन्त और इयजन वायु के कारण हैं। जिन्हें वायु की आवश्यकता होती है, वे अपने उद्यम से उसे उत्पन्न करके अपना तप शमन करते हैं।' वैसे ही महाराज शास्ता (बुद्ध) दस सहस्र लोकों पर मृदु-मधुर