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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२३४ बाण भट्ट की आत्मकथा पर्वत का भ्रम होता था । गजमुकाअों से बना एक हार राजाधिराज के वक्षःस्थल को घेर कर विराजित हो रहा था। दोनों भुजमूलों में इन्द्रनील मणुि द्वार खचत केयूर बँधे हुए थे, जो चन्दन की सुगन्धि से लिंच आए हुए वलयित भुजंग-से शोभित हो रहे थे । कानों के ईषदालम्बित उत्पल अत्यन्त मनोहर दिख रहे थे। अष्टमी के चाँद के समान विशाल ललाटपट्ट से दीक्षि-4 निकल रही थी तथा शिरोदेश की चूड़ा-निहित वकुल-माल की सुगन्धि से राजसभा अमोद-मग्न हो रही थी। मैंने इतना विराट ऐश्वर्य पहले कभी नहीं देखा था, इसी- लिए मेरे ऊपर इन सब का हेमा प्रभाव पड़ा था कि मेरा तेज म्लान हो गया था । महाराज से जब मेरा परिचय कराया गया, तो उन्होंने तिरस्कार-भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा और पास ही पीछे की ओर बैठे हुए मालवराज के पुत्र से कहा-यह परम लम्पट व्यक्ति है ! | मेरे कान तक की शिराएँ लाल हो गई', तीव्र मानस-सन्ताप से सारा शरीर जल उठा । मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं चक्कर खाकर गिर जाऊँग । अगर विशाल ऐश्वर्य देखकर मैं अभिभूत न हो गया होता, तो निश्चय ही इसका उपयुक्त उत्तर देता । वस्तुतः जब मैं बाहर निकल आया, तो मेरे मन में हजार-हजार उत्तर उदभूत और विलीन होने लगे। मैं अपने विष से अाप हो दीर्घकाल तक जलता रहा। मुझे उस समय अपने प्राणों की कोई परवा नहीं थी; परन्तु फिर भी ऐसा उत्तर नहीं दे सका, जो उचित कहा जा सकता है; जी महाराजा- धिराज को यह अनुभव कर देता कि महाराजा होने मात्र से किसी को किसी के विषय में अनर्गल विचार रखने का अधिकार नहीं हो जाता । पर उस समय मैं मूक की भाँति, स्तब्ध की भाँति, जड़ की भाँति देर तक हाथ जोड़े खड़ा रहा । महाराजाधिराज अन्यान्य कार्यों में लग गए। मेरी उपस्थिति की और उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया, मानों मैं कोई हूँ ही नहीं । ऐश्वर्य-मद और तेजोभ्रष्टता का यह बीभत्स