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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा ३२५ प्रदर्शन था । थोड़ी देर तक इसी प्रकार बीता । फिर एक बार उनकी दृष्टि मेरी ओर फिरी । वस्तुतः उन्हें भी अपने वाक्य पर खेद था। आश्चर्य यह था कि सारी राजसभा चुप थी । किसी ने भी इस स्पष्ट ही प्रमादपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध कुछ बोलने का साहस नहीं किया । मैं कुछ सम्हल गया था। कण्ठ साफ़ करकेबोला-'अपराध क्षमा हो देव, श्राप चक्रवर्ती राजा हैं । आपके श्रीमुख से निकली हुई यह बात पक्षपात होन तत्तबज्ञ की-सी नहीं है । अाप अश्रद्धधान की भाँति, नेय की भाँति लोक-वृत्तान्त से अनभिज्ञ की भाँति बात कर रहे हैं । राजराजेश्वर को क्या इस प्रकार निर्णयात्मक दोषारोप करना उचित है ? न-जाने किस दुर्जन ने मेरे विरुद्ध आपसे क्या कह रखा है, उसी के आधार पर मुझे आत्मदोष को जानने दिए बिना श्राप ऐसी बात कह रहे हैं । मैं सोमपायी वात्स्यायनों के विमल वंश में उत्पन्न हुअा हूँ, यथाकाल उपनयनादि संस्कारों से संस्कृत हूँ, सांगवेद का अध्ययन करने का सुयोग पा चुका हूँ, यथाशक्ति शास्त्रों का अभ्यास भी करता रहा हूँ। मैं किस अपराध के कारण लम्पट बताया जा रहा हूँ १ । | महाराजाधिराज का चित्त जरा कोमल हुअा। उन्होंने धीरे से कहा–'मैंने ऐसा सुन रखा है। एक बार फिर उपेक्षा से मेरी ओर देखकर वे अन्य कार्यों में लग गए । न बैठने को असिन दिया और न ताम्बूल-वीटिका से सत्कार किया । इस बार मेरा अवारा मन में - ज़ोर घोड़े की तरह लगाम से विद्रोह कर उठा । महाराजाधिराज ने मेरी लम्पटता की बात सुनी है। मैं इनकी लम्पट-शरण्यता को जानता हूँ । ने-जाने मौखरियों के छोटे महाराज-जैसे पाप-लिप्त कितने सामन्त इनकी छाया पाकर दुर्धर्ष हो गए हैं । इन्होंने मेरे विरुद्ध सुना है । क्या सुना होगा भला ! यहीं न कि मैंने छोटे महाराज के अन्तःपुर में प्रवेश किया था और वहाँ से भट्टिनी को छुड़ा ले गया था ? यही मेरी लम्पटता है और यही इनका ऐश्वर्य-दम्भ है ! धिक् ! क्रोध के मारे