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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा मेरे अधर प्रस्फुरित हो गए। मैं कुछ कहने जा ही रहा था कि कुमार कृष्णवर्धन की और मेरी दृष्टि फिरी ; उन्होंने संकेत किया कि शान्त हो जाओ । मन्त्ररुद्ध पददलित भुजंग की भाँति मैं जैसे का तैसा रहे गया। थोड़ी देर बाद महाराजा ने फिर मेरी ओर दृष्टि फिराई । इस बार कुमार कृष्णवर्धन खड़े हुए। उन्होंने विनीत भाव से निवेदन किया-‘देव, बाण भट्ट पवित्र वात्स्यायन-वंश के तिलक हैं, उनका उपयुक्त सम्मान होना चाहिए ।' महाराजाधिराज ने मौन भाव से कुमार की बात का समर्थन किया । कुमार ने मुझे चलने का इशारा किया, और मैं ज़रा औद्धत्य के साथ ही राजसभा से बाहर निकल आया । आज मैं अपनी बात पर विचार करता हूँ, तो ऐसा लगता है। कि मैं यदि उस दिन कुछ औद्धत्य कर बैठता, तो वह एक महान् अनर्थ होता । मेरा अभिभूत हो जाना उस दिन अच्छा ही हुआ। बाद में दीर्घकाल तक महाराजाधिराज के संसर्ग में रह कर मैंने जाना है कि वस्तुतः उनका हृदय फूल से भी अधिक कोमल है । उस दिन उन्होंने मेरे साथ जो व्यवहार किया, उसे बहुत दयापूर्ण कहा जाना चाहिए; क्योंकि मेरे सम्बन्ध में उन्हें जो-कुछ बताया गया था, वह अत्यन्त घृणित था ।। | जो हो, उस दिन मेरा मन विक्षुब्ध था । मैं बिना किसी उद्देश्य के नगर की गलियों में प्रमत्त की भाँति चक्कर काटता रहा। संध्या समय नगर-वीथियों के प्रदीप जलाए जाने लगे, पक्षिगण अपने-अपने कुलापों में लौटने लगे और स्वच्छ नील आकाश में दो-एक नक्षत्र चमक उठे। मैं भटकते-भटकते उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ निपु- पिका की दुकान थी। पहचानने में मुझे बिल्कुल आयास नहीं करना पड़ा । तुरन्त भट्टिनी की बात मुझे याद आ गई । सुचरिता कहीं यहीं रहती है । क्यों न उसकी खबर लेता चनँ । महाराजाधिराज से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। उनसे भट्टिनी के विषय में मैं बात भी