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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा २२७ नहीं करना चाहता । कुमार कृष्णवर्धन इतने अधिक नीति-निपुण हैं। कि उनकी बातें मेरी समझ में ही नहीं आतीं । वे क्या चाहते हैं, वे ही जाने । अाचार्य सुगत भद्र से कुछ सहायता पाने की आशा रख सकता हूँ; परन्तु वे कुमार के भरोसे ही बैठे रहेंगे । सुचरिता के पास जाने में बाधा क्या हैं ? किसी के अप्रसन्न होने की चिन्ता नहीं है। परन्तु सुचरिता कहाँ रहती है ? उसे यह कोई पहचानता है ? किसी से उसके बारे में पूछना क्या उचित है ? इतना तो निश्चित है कि वह यहीं कहीं रहती है । किसी वृद्ध भद्रपुरुष से पूछना ही उचित है। कान्यकुब्ज के युवकों को मैं जानता हैं । चे अज्ञ को उपहास का पात्र समझते हैं, पूछने वाले को मूर्ख बनाने में रस पाते हैं । इसीलिए मैंने एक वृद्ध सज्जन को रास्ते पर एक ओर जाते देख कर पूछा-'कुछ पूछना चाहता हूँ, ये ! ‘क्या आयुष्मन् ??

  • आर्य क्या इस नगर के निवासी हैं ?

दीर्घकाल से इस नगर में ही वास कर रहा हूँ, भद्र । परन्तु मैं निवासी काशी का हूँ। इस नगर से प्रायः पूरा परिचित हैं। क्या पूछना हैं तुम्हें १ नए अाए हो क्या ? ‘हाँ आर्य, कल ही आया हूँ । मगधवासी हूँ। ‘कल अाए हो १ इसके पहले कभी नहीं अाए १ ‘फाल्गुन में दो-एक दिन के लिए आना हुअा था, आर्य ! वृद्ध की मुख-मुद्रा प्रसन्न दिखी। उनके वली-कुचित कपोलप्रान्त मधुर हास्य से विकसित हो गए। बोले-'तीन महीनों में स्थावीश्वर में बहुत परिवर्तन हो गया है । वह जो सामने विशाल अायोजन देख रहे हो, तीन महीने के भीतर ही वह इतना व्यापक हो गया है। आज नगर में ऐसी स्त्री नहीं है, जो इस विचित्र धर्माचार की भक्ति-धारा में ने बहे गई हो । पुरुषों का एक दल भी इस अायोजन में शामिल है।