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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३२८ बाण भट्ट की श्रीम-कथा कान्यकुब्ज विचित्र देश है, आयुष्मन् ! काशी में लोग धर्म के नाम पर इस तरह उतराकर नहीं बहते ।' | मुझे वृद्ध की दुर्बलता समझ में आ गई । मैं स्वयं काशी में पुराण-पाठ करके सहस्रों नर-नारियों को उन्मत्त बन चुका हूँ, इसलिए इस विषय में मुझे वृद्ध को प्रामाणिक समझने की ज़रूरत नहीं । परन्तु उनसे मनोरंजक समाचार मिल रहे थे, इसीलिए मैंने थोड़ी स्तुति की–‘काशी की बात और है, आर्य ! वह विद्या की पीठस्थली है, शास्त्र-ज्ञान की जननी हैं ।। | वृद्ध और भी उत्साहित हुए, बोले-'आज से कई महीने पहले से श्रीपर्वत के वैष्णव तान्त्रिक वेंकटेश भट्ट इस नगर में आए हुए हैं । | मैंने बीच ही में टोका-क्या कह रहे हैं, आर्य ! श्रीपर्वत तो वामाचारियों और कापालिकों की साधना-भूमि है। वहाँ वैष्णव तान्त्रिक साधना भी है, यह बात तो नई सुन रहा हूँ । वृद्ध ने मन्द स्मितपूर्वक उत्तर दिया-क्रान्कुब्ज में अाए हो, तो बहुत-सी नई बाते सुनोगे, भद्र ! ये वेंकटेश भट्ट पहले उब्बियान- पीठ में सौगत तन्त्र की उपासना करते थे। वह से ने-जाने क्या बात हुई कि ये श्रीपर्वत पर चले आए और अब तो कान्यकुब्ज को ही पवित्र कर रहे हैं। शुरू-शुरू में कुछ चपले स्वभाव स्त्रियों ने ही उनसे दीक्षा ली थी । एक छोटे अन्तःपुर की परिचारिका निउनिया थी, उसने उनसे प्रथम दीक्षा ली थी । वह तुरन्त कहीं अन्तर्धान हो गई । दूसरी चेली उसी की एक सखी सुचरिता हुई। इसी गली में वह गाने में प्रसिद्ध थी । वह इस समय नगर की प्रधान भक्तिमती मानी जाने लगी है। अब तो यह हालत है कि संध्या हुई नहीं कि नगर का अन्तःपुर निःशेष भाव से उलट कर इस आयोजन में शामिल हो जाता है। कांस्य और करताले के साथ संयवक वाद्य उन्माद का वातावरण पैदा करता है और उसमें सुचरिता के गान मोहिनी मन्त्र