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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाए भट्ट की आत्म-क्रया हो जाने के बाद उसने कलश पर उसे सहज ही नहीं रख दिया । उसने बड़ी सुकुमार भंगी से प्रदीप को उठाया, वाम करतल को त्रिपताक मुद्रा से मुद्रित किया और प्रदीप के ऊपर उसे दक्षिणामुख घुमाया। सब-कुछ उसने अत्यन्त सहज भाव से किया । स्पष्ट हो जाने पड़ता था कि हाघकाल के अभ्यास के कारण उसके हाथ स्वयं धम रहे थे । बाएँ हाथ से उसने अचल खींच कर गले से लपेट लिया और भक्ति-भाव से जानुअों के बल खड़ी हुई । गुरु की पूजा ही उसकी क्रिया का प्रधान अंग जान पता था। गुरु के सामने कई बार प्रदीप घुमाने के बाद वह खड़ी हो गई और एक बार प्रदक्षिरी कर के फिर उसी प्रकार जानुअों पर खड़ी हुई । प्रदक्षिणा के समय उसके हाथ बराबर प्रदीप को भी दक्षिणामुख घुमा रहे थे। इसी समय मैं उसे अच्छी तरह देख सका । उसका रंग मैला था; परन्तु अाँखों में अपूर्व माधुर्य था । अधरों पर स्वाभाविक हँसी खिलाने वाला वह धर्म, जिसे सौन्दर्य शास्त्री 'राग' कहते हैं, इस गम्भीर मुख- श्री में भी प्रत्यक्ष हो रहा था। उसकी प्रत्येक अंग-भंगिमा से भक्ति की लहर तरंगित हो रही थी; पर अनाड़ी भी समझ सकता था कि वह ‘छायावती' रही होगी, क्योंकि उसकी प्रत्येक गति से वक्रिमता और परिपाटी-विहित शिष्टाचार प्रकट हो रहे थे । सहृदय लोग जिस रंजक गुण को सौभाग्य कहते हैं, जो पुष्प-स्थित परिमन के समान रसिक भ्रमरों का अान्तरिक और प्राकृतिक वशीकरण धर्म है, वह सुचरिता के अपने हिस्से पड़ा था | शोभा और कान्ति उसके प्रत्येक अंग से निखर रहे थे और प्रत्येक पद-विक्षेप में औदार्य बिखर रहा था। मुझे तनिक भी सन्देह नहीं रहा कि वर्ण और प्रभा में कंजूसी करने पर भी अन्यान्य शोभा-विधायी धर्मों में विधाता का पक्षपात इस नारी-रत्न के ऊपर ही रहा है। इधर की स्त्रियों में प्रक्षेप्य और अबेध्य अलंकारों का बड़ा प्रचलन है। परन्तु सुचरिता के कानों में एक चक्राकृति