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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा २३३ हूँ। संगीत और वाद्य का ऐसा मधुर मिश्रण मैंने पहले कभी नहीं देखा था। यह एकएम नई वस्तु थी। धर्म-चर्चा का यह अभिनव श्रायोजन था । वायुमण्डल के प्रत्येक स्तर से नारायण की स्तुति मुखरित होती जान पड़ती थी और दिकुचकवान का प्रत्येक कोना संयवक की गम्भीर ध्वनि से गमगम रहा था। देर तक ऐसा ही चलता रहा ! फिर एकाएक सब लोग चुप हो गए ! गुरु की आज्ञा से सुचरिता ने शंख बजाथा । मैं एक बार फिर आश्चर्यचकित रह गया। हमने इधर कहीं भी स्त्रियों को शंख बजाते नहीं देखा था । परन्तु यह भजन- साधन सब प्रकार से विचित्र था। अब वैकटेश भट्ट का नाम-कीर्तन श्रारम्भ हुश्रा । वे खड़े हो गए। लम्बा भरा हुआ सुगठित शरीर, कपाट की भाँति विपुल वक्षःस्थले, ग्राजानुलम्बित बाहु, मृदंग-मन्द्र स्वर । बिना भूमिका के ही उन्होने कहा--‘नारायण के चरणारविन्द दो-तीन पापियों का उद्धार कर सके हैं ; पर उनके नाम ने समस्त जन के नि:शेष क्लेश के शमन का व्रत लिया है। मेरे लिए यह विचित्र उपदेश था । मैं इस बात को समझने का प्रयत्न कर ही रहा था कि वे गद्गद कण्ठ से गा उठे -- द्विश्रान् समुद्धतु मतं बभूव पदारविन्दाश्रयणं मुरारेः । अशेषसंक्लेशशमं जननां नित्यं विधत्ते वसुधाम नाम !! और फिर भावाविष्ट-से होकर ‘नारायण, नारायण’ को एक विशेष सुर में गाते-गाते नाच उठे। एक बार फिर संयवक गमगमा उठा; कांस्य, कोशी श्रौर करताल झनझना उठे। सहस्र-सहस्र कण्ठ उसी सुर में नारायण का नाम जपने लगे । गुरु की वह अद्भुत भाव-विह्वल तुल० (भागवत, २, ७, १४)- अशेषसंक्लेशशर्म विधत्ते गुणानुवादश्नवर्ण मुरारेः । कुतः पुनस्सरणारविन्दपरागसेवारतिरात्मलब्धः ।।