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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३३Y बाण भट्ट की आत्मकथा अवस्था थी । वस्तुतः ही वे एकाध पर बेहोश होकर गिर गए। सुच- रिता शुरू से अन्त तक निवात-निष्कम्प दीपशिखा की भाँति हाथ जोड़े बैठी रही । बड़ी देर तक यह भजन चलता रहा। अन्तिम कार्य सुचरिता का गान था । आहा, संगीत को ऐसी शीतल मन्दाकिनी भी इस मत्र्यलोक में है ! समस्त जनमण्डली जड़ की भाँति, स्तब्ध की भाँति चुपचाप उस मधुर धारा में स्नान कर रही थी। जब गान समाप्त हुआ, तो मानो सब की संज्ञा लौट आई। धीरे-धीरे भीड़ कम होने लगी । शिष्यों में गुरु को यथास्थान पहुँचा देने की व्यस्तता दिखाई पड़ी । सुचरिता अन्त तक सभ-मण्डप में ही रही । जब सब लोग विदा हो गए, तो कुछ सेवकों को उस मण्ड़प की वस्तुओं को सम्हालने का भार देकर वह भी निकल पड़ी । अवसर देख कर मैं उसके पास गया । सुचरिता अब अपने घर के दरवाज़ तक पहुँच गई, तो मैंने साहस पूर्वक पुकारा–‘शुभे, अनुचित न मानें, तो मैं कुछ निवेदन करू । वह तुरत लौट पड़ी । मेरे पास आकर बोली--‘कुछ सेवा कर सकू, तो मैं धन्य हूँगी, श्राय ! क्या आज्ञा है सुचरिता का सारा शरीर ही छन्दों से बना था। उसके वस्त्र, उसके पद-विक्षेप, उसका कण्ठ- स्वर, उसकी दृष्टि - सब कुछ छन्दोमय थे। उसके इस वाक्य में भी वीणा का-सा झंकार था। मैं मन्त्रमुग्ध की भाँति सुनता रहा। थोड़ी देर बाद उसने ही फिर कहा- 'क्या काम है आर्य, अवहित हूँ । फिर वही झंकार । मेरा रोम रोम पुलकित कदम्ब-केसर की भौति उस्फर्ण हो उठा। मैंने देर करना अनुचित समझकर कहा-'परदेशी हूँ, शुभे ! अनुचित कहूँ, तो क्षमा करें । क्या निपुणिका नाम की छोटे अन्तःपुर की परिचारिका को अप जानती हैं १ । | सुचरिता की बड़ी-बड़ी काली अखे क्षण-भर में धूसर हो गईं। उसने मुझे सिर से पैर तक देखा और शंका और अविश्वास के साथ पूछा --‘श्राप कहाँ से आ रहे हैं ? किसे खोज रहे हैं। मैं सुचरिता हूँ।