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२३८
बाण भट्ट की आत्म-कथा

२३८ बाणु भट्ट को अात्म कथा कैसा विचित्र मिश्रण है ! क्या यह काम-मूत्ति है ?—यह तो हो नहीं सकता । मैं क्या देख रहा हूँ-विष्णु-मूत्ति और काम-गायत्री- कामदेवाय विद्महे पुष्प-वाणाय धीमहि तन्नोऽनगंः प्रचोदयात !! मैं कुछ समझ नहीं सका । ध्यान से वासुदेव की मूर्ति को देखने लगा । मैं जिस समय इसी प्रकार आश्चर्य और विस्मय से उन्मथित बैठा था, ठीक उसी समय सुचरिता ने गृह में प्रवेश किया। वह स्नान कर के लौटी थी । प्रत्यग्र स्नान ने उसकी कान्ति निखार दी थी। उसके धन- मेचक केशपाश कपोल देश को घेर कर सुशोभित हो रहे थे । पीत कौशेय वस्त्र से लिपटी हुई उसकी अंगयष्टि सुवर्ण-शलाका के समान मनोहर दिख रही थी। उसके हाथ में वासुदेव को निवेदित करने के लिए कुछ उपायन थे। चाँदी की थाली में उस उपायन को सजाया गया था । गोल उज्ज्वल थाल हाथ में लिए हुए वह इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, मानो सपुष्पा चन्द्रमल्लिका हो । उसके दाहिने हाथ में एक तामे का भृगार था—वह मूर्तिमती भक्ति की भाँति, विग्रहवती शोभा की भाँति, प्रत्यक्ष प्राविभूत लक्ष्मी की भाँति और अनुराग- वती संध्या की भाँति हृदय को एक अपूर्व रस से सिक्त कर रही थी। मुझे उस अवस्था में बैठा देख वह कुछ झेप गई । मैं भी थोड़ा लज्जित हुश्रा। फिर मैं धीरे से अपने आसन पर बैठ गया । सुचरिता ने भक्ति- पूर्वक उपायनों को वासुदेव के चरणों में रख दिया, गले में आँचल लपेट कर जानुपात:पूर्वक प्रणाम किया और थोड़ी देर तक ध्यान- द्गिद् होकर उसी प्रकार बनी रही । वह निनिमेष भाव से वासुदेव की ओर देखती रही । ऐसा मालूम हुआ कि वासुदेव उस नील कमल-माला की-सी दृष्टि से बँध कर प्रसन्न हुए। सुचरिता का भक्ति- परवती वैष्णव के कई सम्प्रदाय आज भी काम-गायत्री से श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं ।-सं०