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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा । २३६ समुज्ज्वल मुख-मण्डल आनन्दाश्रुि से सिक्त हो गया । न कोई मन्त्र पढ़ा गया, न कोई स्तुति गाई गई और न कोई अन्य विधि ही की गई, केवल मानस-निवेदन के साथ यह पूजा समाप्त हुई। शुरू से अन्त तक उसमें एक विचित्र गरिमा भरी रही । । सचरिता ने जन्म पाद्य अर्घ्य देकर मुझे आसन पर बैठाया, तो मैंने विनीत भाव से पूछा-‘शुभे, मन में कुछ अन्यथा न समझो, तो एक बात जानना चाहूँगा । सुचरिता ने प्रीति और उत्साह के साथ कहा-मैं अज्ञ हूँ, अायं, पर कुछ सेवा करने योग्य हो, तो उठा नहीं रखें गी । क्या अज्ञा है ?? सुचरिता की बड़ी-बड़ी काली अाँखे उत्सुकता से भर गई। मैंने विनोत भाव से पूछा--'इस वासुदेव की मूर्ति के पूजन-अराधन के विषय में जानना चाहता हूँ । मैं आज संध्या से ही इस रहस्य को समझना चाहता हूँ, देवि, पर मेरे मन में सन्देह पर सन्देह जमा होते जा रहे हैं, समाधान कुछ नहीं सूझता । सुचरिता की अाँखें एक विचित्र अानन्द-ज्योति से प्रदीप्त हो उठीं । बोली- मैं भी नहीं समझती, अर्य, परन्तु इतना जानती हूँ कि आज से तीन महीने पूर्व तक मैं अपने को पापलिप्त समझती थी। अब मेरे चित्त का वह विकल्प दूर हो गया है। अपि मेरे गुरुदेव से इसका अर्थ पूछे, वे ठीक-ठीक बता सकेंगे ।' सुचरिता की बात का मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल आश्चर्य से उसकी ओर देखता रहा। थोड़ी देर तक वह अभिभूत-सी बैठी रही। फिर धीरे-धीरे बोली--मानव-देह केवल दण्ड भोगने के लिए नहीं बनी है, अर्थ ! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है । यह नारायण का पवित्र मन्दिर है। पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतनी परिताप नहीं भोगना पड़ता । गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है। मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है । क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को अपना देवता समझ लेता, आर्य १५