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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३४० UI बाण भट्ट की आत्मकथा सुचरिता की अाँखें नीचे झुकी हुई थीं। वह मेरे लिए शासन और आचमनीय अादि सजा रही थी। उसकी झुकी हुई अाँखें और भी मनोरमें मालूम हो रही थीं। सिर्फ एक बार उसने मेरी और अखि उठाकर देखा । मैं और भी सुनने को उत्सुक था। उसकी बातें मेरी समझ में एकदम नहीं आ रही थीं । परन्तु उसके प्रत्येक शब्द में एक ऐसी गुरुता था कि मैं उसे गहन शास्त्र-वाक्य की मर्यादा के साथ सुन रहा था । अपने प्रश्न का उत्तर वह नहीं चाहती थी । उत्तर उसे मिल चुका था। यह प्रमाद है, अार्य, कि यह शरीर नरक का साधन है । यही वैकुण्ठ है । इसी को अश्रिय करके नारायण अपनी अानन्द-लीला प्रकट कर रहे हैं । आनन्द से ही यह भुवन-मण्डल उद्भासित है । आनन्द से ही विधाता ने सृष्टि उत्पन्न की है । अानन्द ही उसका उद्गम है, अानन्द ही उसका लक्ष्य है । लीला के सिवा इस सृष्टि का और क्या प्रयोजन हो सकता है, अर्थ ? हाय गुरो, पहले यह बात मुझे क्यों नहीं मालूम हुई !--सुचरिता का प्रदीप्त मुख और भी उज्ज्वल हो गया। उसे कहने में आनन्द मिल रहा था ; परन्तु उसका प्रत्येक शब्द मेरे लिए दुबैध्य था । मुझे ऐसा लग रहा था कि उसके शब्दों के अन्तराल में कुछ और है, जो उसे गद्गद् बनाए हुए है। श्रासन सजा लेने के बाद उसने मुझे उस पर बैठने को कहा। मैंने चुपचाप आदेश पालन किया । प्रसाद में कुछ फल और मिष्ठान्न थे । सुचरिता के परिवेषण में भी एक अपना सौकुमार्य था । कल्प-लता के किसलयों से अभिलषित फल जब च्यावित होता होगा, तो कुछ ऐसा ही मनोहर होता होगा । प्रसाद देकर वह हाथ जोड़कर बैठ रही। उसकी आँखों में आनन्दाश्न डबडबा आए थे। उसे अलौकिक तृप्ति हो रही थी। मैंने स्मितपूर्वक कहा-‘नारायण का प्रसाद पाकर आज कृतार्थ हूँ, देवि ! नारायण भी इस उपायन को पाकर निश्चय ही कृतार्थ हुए होंगे । सुचरिता का