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बाण भट्ट की आत्म-कथा

उस काशीवासी बृद्ध ने क्या कहना चाहा था ? क्या सुचरिता के विषय में स्थाण्वीश्वर में भ्रान्त धारणाएँ फैली हुई हैं १ कुछ समझ नहीं सका। थोड़ी देर बाद अपने विश्राम-स्थान पर पहुँचा, तो मालूम हुआ कि अत्यन्त आवश्यक पत्र लेकर कुमार का दूत दीर्घकाल से मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। तीन पत्र एक क्षौम वस्त्र की सुन्दर प्रतालिका में लिपटे हुए थे। मैंने सावधानी से प्रतलिका को खोला । भीतर कपरकाष्ठ की मनोहर पाटी थी, जिसके चारों ओर लाक्षा-रस से कल्पवल्ली अंकित की गई थी । मध्य-भाग में महाराजाधिराज श्री हर्षदेव की मुद्रा थी । मैं आश्चर्य और औत्सुक्य से अभिभूत हो गया पाटी के नीचे भूर्जपत्र की पंचभंजी (पाँच तहों में लपेटी हुई) पत्रिका थी । पाँच तह देखकर ही मैं समझ गया कि पत्रिका मित्रता स्थापित करने के उद्देश्य से लिखी गई है बड़े अाग्रह से मैंने उसे खोला । यह महाराजाधिराज का आदेश-पत्र था। मैं उनका सभापंडित नियुक्त हुअा हूँ और मुझे सम्राट् के हाथ से ताम्बूल-चीटक (पान का बीड़ा) पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । मुझे कल प्रातःकाल राजपंडित के वेश में उपस्थित होने का आदेश है। यह पढ़ कर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि मैं सम्राट् का विश्वस्त प्रतिनिधि बनने का सम्मान पा सका हूँ ! आज जिस व्यक्ति को सम्राट् ने ‘लम्पट' कह कर तिरस्कृत किया है, वहीं कल से सम्राट का विश्वासपात्र प्रतिनिधि हो सकेगा ! मैंने आश्चर्य और कुतूहल के साथ दूसरा पत्र खोला। इसमें चार भाँज थे | मैं पहले ज़रा सकपकाया, चार भइ का पत्र तो अधीनस्थ सामन्त का पद-गौरव बढ़ाने के लिए लिखा जाता है । मैं कब महाराजाधिराज का सामन्त था ! परन्तु पत्र पढने पर मालूम हुआ, यह भद्र श्वर-दुर्ग के सामन्त लोरिकदेव के नाम पर है । सम्राट् ने उन्हें चरणाद्रि के पूर्व और गंगा के उत्तर- तटस्थ प्रदेशों का प्रधान सामन्त बना कर अपना प्रसाद प्रकट किया