पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४३
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्मकथा है और सम्राट के विश्वसनीय प्रतिनिधि वात्स्यायनवंशीय बाण भट्ट को यथोचित सम्मान और साहाय्य देने का आदेश दिया है ! यह दूसरी प्रहेलिकी थी। मैंने तीसरा पत्र खोला । इस पर कुमार की मुद्रा थी । उन्होंने महासान्धिविग्रहिक पद से सम्राट के विश्वस्त सभासद् वात्स्यायनवंशीय पंडित बाण भट्ट को अावश्यक कार्य से कल प्रातः काल मिलने का अनुरोध किया है । मुझे इतना समझने में देर नहीं लगी कि कुमार ने कोई बड़ा-सा कूटनीतिक दाँव चलने का संकल्प किया है और मैं उसमें निमित्त बनने जा रहा हूँ। परन्तु मुझे शंका बिल्कुल नहीं हुई, प्रसन्नता भी नहीं हुई। मैं पहली बार अनुभव कर सका कि बाण भट्ट चाहे जैसा भी अवार। क्यों न हो, भट्टिनी की सेवा का अवसर पाने के कारण वह राजनीति की दृष्टि में महत्वपूर्ण हो गया है । यह हर्ष की बात नहीं है, विषाद की भी नहीं है । मैं निश्चिन्त होकर शयनीय पर लेटा और बहुत शीघ्र निद्रित हो गया ।। प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर कुमार के आवास पर पहुँचा। पहले से ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । बड़े आदर और सम्मान के साथ उन्होंने मुझे अासन दिया । ज़रा मुसकुराते हुए बोले--‘महा- राजाधिराज का आदेश तो तुम्हें मिल गया है न, भट्ट १० मैंने विनीत भाव से सिर हिला कर स्वीकार किया । कुमार बोले--मुझे इस कार्य को सिद्ध करने के लिए बहुत-सी मिथ्या बातों की रचना करनी पड़ी है; परन्तु तुम इसे बुरा न समझना। मैंने जो कुछ किया है, वह आर्यावर्त की विनाश के गर्त से रक्षा करेगा। भेड़ियों के समान निघृण और चीटियों से भी अधिक संघबद्ध प्रत्यन्तदस्यु सीमान्त पर फिर एकत्र हो रहे हैं । फिर आर्यावर्त के देवमन्दिर और विहार, वृद्ध और बालक, साधु और स्त्रिया, ब्राह्मएए और श्रमण सत्यानाश के बवण्डर के शिकार होने वाले हैं । आज गुप्तों का प्रताप अस्तमित है, दुर्मद यौधेय उत्पाटितदन्त व्याघ्र की भाँति हीनदर्प हो गए हैं, मौखरियों