पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२५८

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चतुर्दश उच्छ्वासे प्रथम दिन का ताम्बूल-वीटक ( पान का बीड़ा ) काफ़ी महँगा पड़ा । महाराजाधिराज से सिंहासनासीन होने के पहले हुई रजसभा में पहुँच गया था। उस समय राजसभा में असंयम और चापल्य का राज्य था । कोई सामन्त पाशा खेलने के लिए कोठे खींच रहे थे, कोई द्य तक्रीड़ा में उलझ चुके थे, कोई वीणा बजा रहे थे, कोई चित्रफलक पर राजा की प्रतिमूत्ति अंकित कर रहे थे और कोई-कोई अन्त्याक्षरी, मानसी, प्रहेलिका, अक्षरच्युतक आदि काव्य-विनोदों में मशगूल थे । कुछ लोग राजा के बनाए पदों की व्याख्या कर रहे थे। कोई विदग्ध रसिक चामर धारिणी और अन्य वार-वनिताअों से बात- चीत में पगे हुए थे। कुछ तो ऐसे भी ढीठ थे, जो भरी सभा में किसी रमण के कपोल-देश पर तिलक-रचना कर रहे थे । राजसभा में प्रथम बार सभ्य होकर पहुँचनेवाले मनुष्य के चित्त पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, यह केवल अनुमान किया जा सकता है। सारी सभा उच्छ खलता का मूतं विग्रह बनी हुई थी | परन्तु सभ्य लोग फिर भी इतने सावधान अवश्य थे कि उनके प्रत्येक कार्य से यह सूचित हो कि वे ही महाराजाधिराज के अनुगत और भक्त हैं । अपने असावधान रूप में भी सभा में चाटुकारिता पूरी मात्रा में वर्तमान थी ।। ज्योंही महाराजाधिराज प्रधान अधिकरणिक (जज) और कुमार कृष्णवर्धन के साथ सभामण्डप में पधारे, त्योंही सभा संयत और निय- मानुसार शृखलायुक्त हो गई। घनपटह-निनाद और तुमुल शंखनाद ' कादम्बरी, पूर्वभाग, राजसभा-वर्णन से सुलनीय