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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा के बीच बारंबार उद्धष्ट वन्दियों के जय-निनाद से वायुमण्डल कम्पित हो उठा। लाक्षारस से रंजित और सुगन्धित, कालागुरु से धूपित चामर-व्य जन-धारिणियों की हल्की साड़ियाँ फरफरा उठीं। उनके मृणाल-तन्तु के समान कोमल भुजाओं में स्थित कंकण-वलय झनझना उठे। सामन्तों के केयूर श्रीर अंगद एक-दूसरे से, शीघ्रता में उठने के कारण, टकराकर कटकटा उठे । मांगल्य मन्त्रों के उच्चारण करनेवाले पुरोहितों में कुछ ऐसी चंचलता अाई कि एक तो अपने ही उत्तरोद में उलझ कर गिरते-गिरते बचा। मंगल-द्रव्यधारिणी विलासिनियों के मेखलादाम के घघुरु की मधुर ध्वनि सुन कर भवन-दीर्घिका के सारस ऐसे उत्कण्ठित हुए कि उनके ॐकार से सभा में कोलाहल की मात्रा और भी बढ़ गई । महाराजाधिराज के अासनासीन होते ही जय-निनाद रुक गया, मांगल्य शंख ने मौन धारण किया, वन्दियों की विरुदावली शान्त हुई, पुरोहितों का आशीर्वाद अक्षत-वर्षा के साथ- साथ उपरत हुश्रा और सभा में अद्भुत शान्ति छा गई-केवल रह- रह कर चामरधारिणियों के वाचाल कंकण अपनी रुनझुन से इस शान्ति को बीच-बीच में तोड़ कर उपभोग्य बनाते रहे । मुझे केवल एक बार महाराजाधिराज की कृपा-दृष्टि का प्रसाद मिला । ताम्बूले- बीटक पाने की क्रिया बड़ी अटपटी थी । मेरा अनुमान है कि मैं ठीक-ठीक अभिनय न कर सकने के कारण सभ्यजनों का उपहासास्पद बना था ।। सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ। प्रधान अधिकरणिक ने विशेष-विशेष व्यवहारों (मुक़दमों) में किए हुए अपने निर्णय को महाराजाधिराज से स्वीकार करवाया। बहुत कम अवसरों पर मतभेद हुआ । दो-तीन बार धर्मशास्त्र के अधिकारी पंडितों की राय माँगी गई। एक-आध व्यवहार ऐसे भी थे, जिनके सम्बन्ध में कुमार कृष्णवर्धन से दीर्घकाल तक आलोचना चली। बातचीत बहुत धीरे-धीरे हो रही थी। मैं कुछ