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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा उपसर्ग श्री जुटा और फिर भी वे अक्लान्त चित्त से मुझे सँभालते रहे। होम-वेदिका से उठकर जब वे अध्यापन के कुशासन पर बैठते, तो मेरा धूलिधूसर कलेवर प्रायः उनकी गोद में होता। मैंने उनसे जितना स्नेह पाया, उतनी विद्या नहीं पाई। चौदह वर्ष की अवस्था में वे भी मुझे श्रनाथ करके चले गए ! मेरे जीवन में जां-कुछ मार है, वह मेरे पिता का स्नेह है। उसी से मैं बिगड़ भी और बना भी । आज इस आनन्द के कोलाहल ने धक्का देकर मुझे अपने पिता की गोद में फेक दिया । मैंने एक बार प्रकाश की ओर देवा । मुझे ऐसा लगा कि मेरे पितामहगण मेरे ऊपर दुःख के अश्रु बरसा रहे हैं । कहाँ वेदा- ध्यायियों का 'यशोंशु शुक्लीकृत सप्तविष्ट्रय वंश और कहाँ मैं अभागा बएड ! हे धरित्री, फट जा, ताकि मैं छिप जाऊँ ! एकाएक मेरे मन में आया कि क्यों न कुमार कृष्णवर्द्धन के पुत्र जन्म के अवसर बधाई दे आऊँ। श्राशीद देना तो ब्राह्मण का धर्म हैं, कर्तव्य है, पेशा है । यद्यपि मैं योजना बनाकर कोई कार्य नहीं कर पाता-और यही कारण है कि मैं कोई भी पुस्तक समाप्त नहीं कर सुका--पर निश्चय करने में बिल्कुल देर नहीं करता | सो ज्यों ही यह विचार मेरे मन में आया, मैं कुमार के गृह को प्रस्थान करने का आयोजन करने लगा। उस दिन मैंने डटके स्नान किया, शुक्ल अंगरग धारण किया, शुक्ल पुष्पों की माला धारण की, अगुल्फ शुक्ल धौत उत्तरीय धारण किया-यही मेरा प्रिय वेश था और भगवान् त्र्यम्बकके चरणों में अश्रुधौत प्रणाम निवेदन कर के चल पड़ा। उस समय संध्या हो अाई थी । भगवान् मरीचिमाली की किरणे पृथ्वीन्सल को छोड़कर तरु-शिखरों पर और वहाँ से भी उठकर अस्तं तिरि की चूड़ा पर आ बैठी थी। धीरे-धीरे चाँदनी भी छा गई । उस दिन शुक्ल ' चरित्र, २ बास, ५० ५० से १०