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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२४८ बाण भट्ट की श्रात्म-कथा भी नहीं समझ सका । परन्तु इतना समझने में देर नहीं लगी कि कुमार कृष्ण कुछ परेशान-से थे और प्रधान अधिकरणिक के वली- कुचित मुख-मण्डल पर कठोरता के भाव दिखाई दे रहे थे । महाराजा- धिराज शुरू से अन्त तक एक ही मुद्रा में थे---न हँसी, न क्रोध, न परेशानी ! व्यवहार का प्रकरण समाप्त होने के बाद थोड़ी देर तक कुमार के साथ महाराज की मन्त्र और भी चलती रही । पर प्रधान अधिकरणिक के साथ जब धर्मशास्त्री विद्वान् उठ कर चले गए, तो यह मन्त्रणा भी रुक गई। अब विद्वानों, गायकों, विदूषकों, भाटों, और स्तुति-गायकों की बारी आई । कवियों ने भी अपने नए श्लोक सुनाए । महाराज ने सब को सन्तुष्ट किया । किसी को मीठी-मीठी बातें करके, किसी को ताम्बूल-वीटक देकर, किसी को पुरस्कार देकर और किसी को अपना कोई आभूषण देकर उन्होंने सब का आशीर्वाद पाया। इस समय सभा में खुशामद और स्तोक-वाक्यों का बोलबाला था। कुमार कृष्णवर्धन के इशारे पर मैं भी आशीर्वाद देने के लिए उठा। बड़ी कठिनाई से मैंने एक प्राय सुनाई । मुझे वह वातावरण बड़ा क्लान्तिजनक मालूम हो रहा था। मैंने उस आय में चाटु- कारिता की हद कर दी थी । प्राय समाप्त करके मैं जब महाराजा- धिराज को आशीर्वाद देने के लिए करतल उठा रहा था, उसी समय मेरा हृदय धक् से धड़क गया । निपुणिका को मैंने वचन दिया था कि किसी जीवित व्यक्ति की स्तुति में कविता नहीं लिखु गा । यह क्या हो गया है तो क्या मैं इस लोक में सिर्फ सहस्र दिन-मात्र जीवित रहूँगा ? मैं कुछ इस प्रकार हतप्रतिभ हुआ कि क्षण-भर के लिए भूल ही गया कि उत्तरापथ के प्रबल प्रतापान्वित सम्राट श्री हर्षदेव के सामने खड़ा हूँ । परन्तु कुमार ने मुझे बचाया। उन्होंने मेरी अाय के एक अंश की अनुवृत्ति करते हुए परिहासपूर्वक कहा- ‘व्रत की याद से विह्वल होना उचित नहीं, भट्ट ! सारी सभा हँस पड़ी। महाराजाधिराज देर