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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२५७ बाणि भट्ट की श्रीम-कथा स्पष्ट करने का अनुरोध किया, तो कान्यकुब्ज जनोचित प्रौढ़ नर्म की हँसी हँसकर धायक ने मेरा, कन्धा हिलाया----‘जल्दी ही समझ जाओगे, गुरु !..-और बिना मेरी अनुमति के ही एक अोर चले पड़ा । मैं कछ हैरान-सा होकर अवास-स्थान की ओर बढ़ा। दिन बड़ी कठिनाई से कटा । पश्चिमी मरुभूमि की तप्त वायु त्रिलोक की समूची आद्रता को सुख-सी रही थी । प्रचण्ड दावाग्नि के समान वह वनभूमि की नीलिमा को निगल-सी रही थी, और कान्यकुब्ज के समस्त जलाशयों को सुखाकर प्रलयकाण्ड मचाए हुए थी । ऐसा मालूम होता था कि सूर्यमण्डल से कोई कोई निधूम अग्नि-ज्वाला अनारत भाव से धरती पर बरस रही है। सूर्यास्त होने में एक घटी से अधिक के विलम्ब नहीं था । परन्तु स्थाएवीश्वर के राजमार्ग तप्त वायु और तिर्यक् सूर्य-किरणों के झनझना रहे थे । अजगर के फूत्कार से भी भयावनी वायु-लहरिया विशाल प्रस्तर-हभ्य की उत्तप्त दीवारों से टकरा कर यात्रियों पर बिखर पड़ती थीं, और उस पर विकराल बबण्डर से उड़ाई हुई धूल से आच्छन्न आकाश ऐसा मनहूस लग रहा था कि मार्ग में निकलना साहस का काम हो गया था । परन्तु फिर भी मैं निकल पड़ा सुचरिता के निमन्त्रण में एक अद्भूत आकर्षण था, जिसको अतिक्रम करना असम्भव था। मैं जब उस के घर के पास पहुंचा, तो भगवान मरीचि- माली अपना किरण-जाल सँभाल चुके थे । पश्चिम-समुद्र के तीर पर उनके क्लान्त-णि मुख की लालिमा छा रही थी और वायु की झनझ- नाइट क्रमशः शिथिल होती जा रही थी। मैं उस उत्कण्ठित अकोर की भाँति सुचरिता के घर के सामने उपस्थित हुआ, जो दिन-भर सूर्यातप म तप्त होकर सूर्यास्त-काल में इस आशा से पूर्व-दिगन्त की ओर ताकता है कि चन्द्रमा को जी-भर कर देख सकेगा । परन्तु चन्द्रमा के दर्शन नहीं हुए ! सुचरिता की गोम्योपलिप्त अंगण-भूमि में धूल भरी हुई