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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा २५१ थी,-जान पड़ता था, बहुत आदमी यहाँ किसी अज्ञात शंका से वृथा दौड़ चुके हैं,-क्षीरसागरशायी नारायण को घेर कर लटकनेवाली मालती-माला बासी और शुरू हो चुकी थी और बलि-देहलियौ अमं- गलजनक सूनेपन से अाशंका उत्पन्न कर रही थीं । मैं कुछ समझ नहीं सका। कल की रात और रातों से कुछ विशिष्ट ज़रूर रह चुकी हैं। मैं लम्पट से राज पुरुष तथा सम्राट के प्रतिनिधि हो गया हूँ और सुचरिता भक्तिमती देवी में बदल कर न-जाने क्या हो गई है ! मेरा हृदय एक अज्ञात भय से आतंकित हो गया। किससे पूछ १ इसी समय मुझे स्मरण अाया कि कलवाले उस कथा-मण्डप में चल कर क्यों न देखे लू । मण्डप थोड़ी ही दूर पर था। मैं उधर ही चल पड़ा। मण्डप में लगभग एक सहस्र व्यक्ति बैठे हुए थे । दो चार व्यक्ति इधर-उधर चले फिर रहे थे; परन्तु कोलाहले तो क्या, ज़रा-सा शब्द भी कहीं नहीं हो रहा था । सब के मुख मण्डल गम्भीर थे और एक उत्त- जना का भाव स्पष्ट ही लक्षित हो रहा था। फिर भी सारी सभा शान्त- निस्तब्ध थी । केवल सभापति अत्यन्त संयत भाषा में कुछ समझा रहे थे । उनकी आज्ञा से कोई सभ्य उटता था और संक्षेप में अपना वक्तव्य सुनाकर चुपचाप अपने आसन पर बैठ जाता था । संयम की मात्रा इतनी अधिक थी कि वहाँ के मनुष्य यन्त्र की भाँति लग रहे थे। बाहर खड़े एक भद्र पुरुष ने पूछने पर, फुसफुसा कर बताया-अज सुयाँदय के कुछ पूर्व सुचरिता देवी और आर्य विरतिवज्र बन्दी बना लिए गए हैं, और नगर प्रतीहार के आदमियों ने अर्थ वेंकटेश भट्ट अौर परमहंस अघोर भैरव को नाब पर बैठा कर ने-जाने कहाँ पहुँचा दिया है । यह सब-कुछ बौद्ध नरपति के आदेश से हुआ है। यह स्पष्ट रूप से शान्ति और निरीह प्रजा के धर्माचरण में हस्तक्षेप है । समस्त स्थाएवीश्वर के अधिकारी विद्वान इस समय इस बात पर विचार कर रहे हैं कि उनका क्या कर्तव्य है ।' कान्यकुब्जों का संयम प्रसिद्ध है।