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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा २५५, व्यवसाय के प्रधान अश्रय सामन्त और राजाओं के अन्तःपुर हैं ? आप में से किसे नहीं मालूम कि महाराजाधिराज की चामरधारिणियाँ और करंकवाहिनयाँ इसी प्रकार भगाई हुई और ख़रीदी हुई कन्याएँ हैं ? आर्य सभासदो, क्या इन अभागि नियों के पिता नहीं थे ? क्या वे अपनी माताओं की नयनताराएँ नहीं थीं ? क्या उनके माँ-बाप के हृदय में अपनी सन्तति के प्रति जो स्नेह-भावना थी, वह किसी सम्राट की स्नेह-भावना से कम थी ? धिक्कार है, अार्य सभासदो, जो उत्तर- पथ के विद्वान और शीलवान नागरिक इन राजाश्रों का मुंह जोह रहे हैं ! मैं पूछती हूँ, यदि महाराजाधिराज ने अपकी प्रार्थना का प्रत्या- ख्यान कर दिया, तो आप क्या करेंगे ? आप लोगों में से कौन नहीं जानता कि महाराजाधिराज स्वयं शुद्ध-शील होकर भी सैकड़ों ऐसे सामन्तों को आश्रय दिए हुए हैं, जिनका एकमात्र प्रताप कन्या-हर में ही प्रकट होता है ! श्रार्य सभासदो, यदि मैं असत्य कहती हैं, तो मेरे इस त्रिशूल से मेरा खण्ड-खण्ड़ कर दो ।' इतना कह कर महा- माया ने क्षण -भर रुक कर सभा को ओर देखा। उनकी अखिों में स्फुल्लिग झड़ रहे थे । सभा उत्कर्ण होकर सुन रही थी । महामाया ने फिर सिंहनी की भाँति गरज कर कहा--- ‘अमृत के पुत्रो, मृत्यु का भय माया है, राजा से भय दुर्बल-चित्त का विकल्प है। प्रजा ने राजा की सृष्टि की है। संघटित होकर म्लेच्छवाहिनी का सामना करो । देव- पुत्रों और महाराजाधिराजों की आशा छोड़ो । समस्त उत्तरापथ को लाज तुम्हारे हाथों में है। अमृत के पुत्री, आर्य विरतिवज्र और आयुष्मती सचरिता को बन्दी बनाना, लाख-लाख निरीह ब्राह्मणों और श्रमणों की रक्षा के लिए नहीं हुआ है, वह महाराजाधिराज या उनके किसी अाश्रित सामन्त की नाक बचाने के लिए हुआ है । यह पहला अन्याय नहीं है, अन्तिम भी नहीं होगा। यह दुर्वइ सम्पत्तिमद का चिराचरित रूप है। इसके लिए न्याय की प्रार्थना व्यर्थ है। अमृत के