पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२६९

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२५७ बाण भट्ट की अत्म-कथा असमय में प्रजा में बुद्धिभेद उत्पन्न करना अनुचित हुअा है। | महामाया भीड़ को चीरती हुई तेज़ी से एक ऊँचे स्थान पर अाकर खड़ी हो गई । विद्यछटा की भाँति उनका प्रकाश भीड़ में वक्ररेखा के रूप में उद्भासित हो उठा। उन्हें देखकर भीड़ ने जय- निनाद किया । त्रिशूल उठाकर महामाया ने आज्ञा देने के स्वर में कहा--‘अमृत के पुत्रो, शान्त हो । सारा जन-सम्मर्द मन्त्रमुग्ध-सा, अभिभूत-सा, यन्त्रित-सा शान्त हो गया। महामाया ने फिर कहा---'अमृत के पुत्रो, संयम से काम लो। तुम्हारे विद्वान नागरिकों ने महाराजाधिराज से न्याय पाने की आशा से प्रार्थी होने का संकल्प किया है । आज उन्हें अवसर दो । परन्तु अमृत के पुत्रो, न्याय पा जाने से समस्या समाहित नहीं हो जाती । दुर्द्धर्ष म्लेच्छवाहिनी का सामना राजपुत्रों की वेतन भोगी सेना नहीं कर सकेगी। क्या ब्राह्मण और क्या चाण्डाल सबको अपनी बहू-बेटियों की मान-मर्यादा के लिए तैयार होना होगा । मैं भविष्य देख रही हैं। अमृत के पुत्रो, बड़ा दुर्घट काल उपस्थित है। राजा, राजपुत्रों और देवपुत्रों की श्राशा पर निश्चेष्ट बने रहने का निश्चित परिणाम पराभव हैं । प्रजा में मृत्यु का भय छा गया है, यह अशुभ लक्षण है। अगर तुम यवत्त को बचाना चाहते हो, तो प्राण देने के लिए तत्पर हो जाओ। धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है, वह मनुष्य-मात्रे का उत्तम लक्ष्य है। अमृत के पुत्रो, न्याय जहाँ से भी मिले, वहाँ से बलपूर्वक खींच लायो । यदि तुम नहीं समझते कि न्याय पाना मनुष्य का धर्मसिद्ध अधिकार है। और उसे न पाना अधर्म है, तो भारतवर्ष का भविष्य अन्धकार से श्रच्छन्न हैं । अमृत के पुत्रो, म्लेच्छवाहिनी पहली बार नहीं आ रही हैं, अन्तिम बार भी नहीं आ रही है। तुम यदि आज तुवर मिलिन्द और श्री हर्षदेव की अशा पर बैठे रहोगे, तो सम्भवतः अाज यह विपत्ति हट जाय; परन्तु कल नहीं टलेगी । तुवरमिलिन्द और श्री हर्षदेव