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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा पक्ष की त्रयोदशी थी । मैं अत्यंत पुनकित होकर कुमार कृष्णवर्द्धन के घर की ओर चला। एक बार भी मैंने यह नहीं सोचा कि इस समय वे मुझसे मिलना चाहेंगे भी या नहीं। मेरे मन में आज अजीव उमग थी। आज ही मानों मेरा साग कलुप धुल गया था और मेरा मन तथा शरीर लघु,भार हो गए थे । मैं अब निश्चय कर चुका था कि अपनी लम्पटता की बदनामी को हमेशा के लिए धो दूगा । अाज मैं कुमार कृष्णवर्द्धन से मित्रता करूगा और दस दिन के भीतर ही महराजाधिराज का भी कृपापात्र बन जाऊँगा । फिर मेरा गृह यज्ञधूम की कलिमा से दिशाअों को धवल बना देगा । फिर मेरे द्वार पर वेद-मंत्रों का उच्चारण करती हुई शुक-सारिकाएँ बटुजनों को पद-पद पर टोकर करेंगी। मैं अब वात्सायन-वंश का कलंक कदापि न हूँगा ।। पर मेरा भाग्य अब भी किसी अदृष्टि के कंटक में उलझा हुआ था जो होना था, वह हो गया, और जो होना चाहिए था, वह न हुआ । इसके बाद मुझे एक ऐसी घटना लिखनी है, जिसे लिखते समय मुझे अाज भी भय और आशंका मे कांप उठना पड़ता है। मैं जिस बात से बचना चाहता था, उसी से टकराना पड़ा । भाग्य को कौन बदल सकता है ? विधि की प्रबल लेखनी से जो-कुल लिख दिया गया है, उमे कौन मिटा सकता है ? अदृष्ट के पारावार को उलीचने में अब तक कौन समर्थ हुआ है ।।