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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाए भट्ट की आत्म-कथा २५६ जन-सम्मद की प्रत्येक गति को सावधानी से देख रहे थे और जिस किसी समय अपने तीक्ष्ण फलक-कुन्तों से विद्रोह की ठण्डा कर देने के लिए तैयार थे । महामाया के अचानक आविर्भाव और अन्तर्धान से भीड़ भौंचक्का रह गई थी, और घटना-चक्र के तीव्र गति-परिवर्तन से मैं कर्त्तव्यमूड़े हो गया था । इसी समय चन्द्रमा की उदयगूढ़ रश्मियों से प्राची दिशा पाण्डर हो गई है मैं उस समय भी उस मनोहारिणी शोभा को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। सारा पूर्वी अाकाश प्रिय- समागम-जन्य अानन्द से उद्भासित ज्ञान पड़ता था, ऊँचे-ऊचे वृक्षों की शिखाओं पर पीनाभ रश्मियों का सुनहरा जाल बना हुआ था, और दिगन्त के पर-प्रान्त तक दीघार सुवर्ण-बालकाओं से खचित नील नभोमण्डल निराली शोभा से उद्दीप्त हो उठा था। इसी समय मुझे ऐसा लगा कि कोई मुझे झकझोर रहा है । देखता हूँ, धावक है ! धावक चटुल जीवन्त परिहास का रूप बना हुआ था । चन्दन के अंगरग से उपलिप्त उसके वक्षःस्थल पर मालती-दाम सुशोभित हो रहा था, भुजमूलों में नकुला का मनोहर वलय बड़ी सुकुमार भंगी से सजा हुआ था और सँवारे हुए धूपित केश के पिछले भाग में दुर्लभ जाती- कुसुमों का गुच्छ बड़ा ही अभिराम दिखाई दे रहा था । पान खाने में उसने बड़ी निर्दयता का परिचय दिया था । न मुंह पर ही उसने दया दिखाई थी और न ताम्बूल-पत्रों पर ही । परन्तु पान के इतने पत्ते मिल कर भी उसका वाग्रोध नहीं कर सके थे । वह मई को ऊपर उठाकर अधरोष्ठ को प्रकाश के समानान्तर करके बल रहा था; परन्तु फिर भी निबध अनर्गल कवित्व-धारा इस प्रकार बरस रही थी, मानो कोई ऊध्वमुख धारायन्त्र ( फ़व्वारा ) हो ! मेरा कन्धा हिलाकर ताम्बूल- रस-सिक वाणी में उसने कहा, “चाँद देखते हो क्या, आर्य १ किसी की याद आ गई है क्या ?” उनके परिहास से मैं चौंक पड़ा क्योंकि मुझे सचमुच ही भट्टिनी की याद आ गई थी। लेकिन धावक रुकना