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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६२ बाए भट्ट की आत्म-कथा कहा-“तो क्या महाराजाधिराज भी... बात पूरी होते-न-होते धावक ने कानों पर हाथ रख कर--‘शान्तं पापम् शान्तं पापम् ! इस नगर में शुद्ध-शील व्यक्ति तीन ही हैं -महाराजाधिराज श्री हर्षदेव, महाराज्ञी राज्य श्री और •••| धावक ने रुककर मेरी ओर देखा, मानों कुछ कहते- कहते कह न सका हो । मैंने पूछा---'वह तीसरा बड़भागी कौन है, सखे १ धावक ने अत्यन्त गम्भीरता के साथ कहा-'महाकवि धावक, और ठाकर हँस पड़ा। मैं भी हँस पड़ा। धावक और भी जाने क्या-क्या कहता गया; परन्तु मैं महामाया को चिन्ता में ऐसा निमग्न था कि कुछ भी नहीं सुन सका } महामाया क्या राज्य श्री की सौत हैं । आज उन्होंने अपने को इस देश की लाखों लांछिता और अवमानिता बेटियों में से एक बताया था। क्या रहस्य हो सकता हैं ? हाय, वह कौन-सी दुर्वार मनोवेदना थी, जिसने महामाया को रानी से सन्यासिनी बना दिया । भाग्य का कैसा दुललित परिहास है ! महामाया प्रचण्ड प्रताप शाली मौरि-कुलकी राजलक्ष्मी थीं | इसे, ढलती वयसे में भी उनके मुख-मण्डल से जो तेज़ झरता है, वह धावक के कथन का प्रगण है ! तो धावक टीक ही कह रहा है । अाज महामाया ने जो-कुछ कहा, वह वर्षों से संचित कटुता का मूतं प्रतीक था । सिंहिती की आत्मा अभी वैसी ही है, केवख चोला बदल गया है । पर यह धावक भी अजीब आदमी है । कैसा कवि है यह । इतनी बड़ी बात को इस प्रकार कह गया, मानों महामाया काई पतित स्त्री रही हो और और भी पतित हो गई हो । परन्तु धावक का मुख कैसा निर्विकार है ! आश्चर्य हैं ! | बन्दीशाला के पास पहुँच कर धावक ने कहा-‘लो सखे, द्वार खुला हुआ है । तुम कुमार का आदेश पालन करो, मैं चला । वन्दी- शांला पत्थरों का बना हुआ एक सुदृढ़ भवन था, ऊंचाई इतनी कम थी कि कठिनाई से कोई उसके भीतर खड़ा हो सकता था । सारा भवन एक विराट बिल की भाँति लग रहा था । द्वार पर विशाल