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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा २६३ अश्वत्थ-वृक्ष'उसकी भयंकरता को और भी बढ़ा रहा था । प्रहिरियों ने एक बार मेरा नाम पूछा और द्वार खोल दिया भीतर घुसने पर मैं एक बड़े अाँगन में उपस्थित हुआ । इस अाँगन के चारों ओर छोटी गुहाकृति कोठरियाँ थी । मुझे उन्हीं में से एक के द्वार पर ले जाया गया। द्वार खुलने पर चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से वह छोटा-सा घर उद्भासित हो गया । उसमें हवा या प्रकाश जाने का कोई मार्ग नहीं था । कुट्टिम भूमि पत्थर से पटी हुई थी; परन्तु एक प्रकार का दुर्गन्धि से सारा कक्ष असह्य-सा लग रहा था। उसी में सुचरिता निवात-निष्कम्प दीपशिखा की भाँति पद्मासन बाँधकर बैठी हुई थो । द्वार खुलने के शब्द से उसका ध्यान भंग हुआ होगा । केवल ग्रीवा को ईपद् वक्र करके उसने हमारी श्रीर देखा । प्रहरी ने मेरा नाम बताकर परिचय दिया । सुचरिता की अखं आश्चर्य से विस्फारित हो रही ! उसने बड़े प्रयास पूर्वक विश्वास किया कि प्रहरी सचमुच सत्य ही कह रहा है। क्ष- भर में उसका मुख-मण्डल आनन्द की ज्योति से उद्भासित हो गया। एक तरल सौन्दर्य-धारा से सारा कुट्टिम प्लावित-सा हो गया । सुचरिता ने उठने की चेष्टा की ; परन्तु उसके हाथ और पैर लौह- शृङ्खला से बँधे थे, उठ न सकी । उसकी वह कातरता मेरे हृदय को बुरी तरह से द्रवित करती रही । ग्राहा, कैसा करुण-मनोहर मुख था ! मन्द स्मित-रेखा अधरों पर झलक रही थी । विवशता के कारण आँखें झुकी हुई थीं अौर अश्रु ढुलक न पड़े, इस भय से वह सीधे मेरी ओर न देखकर कनखियों से ताक रही थी । व्याकुल केश-जाल इतस्ततः विक्षित थे और कन्धा झाड़कर वह उनके असंवत रूप को ईषत् संयमित करने का प्रयास कर रही थी । सीमन्त-शोभी अवगुण्ठन पीठ पर श्री गिरा था ; परन्तु हाथों के बंधे रहने के कारण वह उसे यथास्थान रख नहीं पा रही थी। उसके उस करुण मनोभाव को प्रहरी का प्रस्तर-कठोर हृदय भी समझ गया । वह तुरत एक वृद्धा को