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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६५ बाणु भट्ट की अस्मि-कथा मनोहर दिखाई दे रही थी। मैंने कातर भाव से पूछा---'देवि, अवि- नय क्षमा हो, मैं सारे व्यापार को आद्योपान्त जानने की इच्छा से उपस्थित हुआ हूँ। मैं कुछ अच्छा करने का निमित्त बन सकता हूँ। यदि प्रसाद हो, तो कृतार्थं हूँगा ! सुचरिता का शीर्ण मनोहर मुख- मण्डल फिर एक बार अानन्द की दीप्ति से दमक उठी, बोली- ‘आर्य, मुझे अकारण लजा दे रहे हैं । मैं अकिंचन हूं। मुझे रानियों का-सा सम्मान देकर सम्बोधित करने की क्या आवश्यकता है ? मेरा कुछ भी छिपा नहीं है । पाप या पुण्य, धर्म या अधर्म, जो कुछ भी मेरे द्वारा हुआ है, उसे मैंने नारायण को समर्पण कर दिया है। वह निखिल विश्व का अपना हो चुका है। मेरा कुछ भी गोपनीय नहीं है, अाय ! आज्ञा दीजिए, क्या बताऊँ ? मैंने फिर अनुकम्पित वाणी में कहा-'इस व्यवहार का मूल क्या है और आर्य विरतिवज्र के व्यवहार में आपको क्यों बन्दी बनाया गया है, यही सब जानना चाहता हूँ, देवि !! सुचरिता के अधष्ठों पर एक हल्की मुस्कान की रेखा खेल गई। उसकी आँख नीचे ही झुकी रहीं ; परन्तु भृकुटियों में अाकु चन-प्रसारण की क्रिया बराबर चलती रही। वह मेरी ओर ताकना चाहती थी ; पर किसी सरस ब्रीड़ा के दबाव से उसकी पलके उठ नहीं रही थी। उसने धीरे से कहा-'तो अाय, अद्योपान्त सुनना चाहते हैं ?' मैंने विनयपूर्वक उत्तर दिया--‘जितना सुनने का मैं अधिकारी हो सकता हूँ, उतना सब सुनना चाहता हूँ ।' सुचरिता के झुके हुए नयन-देश में कोई अपूर्व रस-माधुरी तरंगित हो रही थी । कन्धा झाड़कर एक बार अपने केशों को फिर संयत करने के बाद उसने कहा-‘सुनिए। | सुचरिता ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया---'मुझे अपनी कहानी बीच में से ही सुनानी पड़ेगी। वस्तुतः मेरो बालकपन मेरी बेसुधी में ही बीत गया । ने तो मुझे अपनी माता का स्मरण हैं, ने पिता का