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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६६ बाण भट्ट की आत्मकथा ही। अत्यन्त कच्ची उम्र में ही विवाह करके मेरे अभिभावकों ने यथाशीघ्र अपना कत्त व्य-भार हलका कर लिया था। श्वसुर-कुल में मैं केवल अपनी सास को ही जानती हूँ। श्वसुर मेरे आने के पहले परलोक सिधार चुके थे, और मेरे आने के थोड़े ही दिन बाद पति- देवता मोक्ष की चिन्ता में प्रत्रजित हो गए। मैं इतनी अबोध थी कि इन घटनाओं का कोई मतलब ही नहीं समझ सकी । सास ने अपने हृदय का समूचा स्नेह उँदेल कर मुझे पाला। क्रमशः एक दिन मैं अकारण अपने-अप के बारे में सचेत हो गई । जिस प्रकार वसन्त- काल में मधुमास, मधुमास में पलनवराजि, पल्लवराज्ञि में पुष्पसंभार, पुष्प-संभार में भ्रमरावली और भ्रमरावली में मदावस्था बिना बुलाए आ जाती है, उसी प्रकार मेरे शरीर में यौवन का पदार्पण हुआ । मेरी सास तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ीं, और मैं नाना स्थानों में भटकती हुई एक अन्तर्निहित अभाव की उदासी में झूलती रही । स्थाएवीश्वर मेरे श्वसुर का निवासस्थान था । मेरी सास अन्तिम वयस में यहीं रहने लगी थी। इसके पूर्व वे तीर्थयात्रा के लिए काशी गई थीं । एक दिन काशी के पाश्र्ववर्ती जनपद से हम लोग जा रहे थे कि सास को मालूम हुआ, एक बहुत सुन्दर और प्रभावशाली ब्रा हाण युवा कथा बच रही हैं । उसकी मोहक शैली, श्रुतिमधुर पद- विन्यास, हृदयहारी उपस्थापना से जनपद में अभूतपूर्व धार्मिक उत्साह का संचार हुआ है । हम लोग भी कथा सुनने गए थे । जब कथा समाप्त हुई, तो मेरी सास ने यथानियम उस तरुण पंडित को मेरा हाथ दिखाया और प्रश्न किया कि उनका पुत्र कब तक लौट अायगा ? मैं तुमसे सच कहती हैं, आर्य, उस दिन मेरा अस्तित्व सीमा तोड़ कर उफन पट्टा, मेरा सारा शरीर रोमांच कंटकित हो उठा और लजावेग के कारण करतलों में स्वेद-धारा बह चलीं । मैंने पहली बार अनुभव किया कि मैं अपने आप में अपूर्ण हूँ। कुछ ऐसा अभाव मेरे अन्त-