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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा २६७ स्तल को स्पर्श कर गया, जो जीवन का बड़ा भारी वरदान सिद्ध हुआ । उस ब्राह्मण ने मेरे स्वेदयुक्त करतलों को अधिक नहीं देखा, केवल भन्द स्मित के साथ सहज भाव से बोला--- ‘तु अखण्ड सौभाग्यवती है। देवि', और फिर मेरी सास को आश्वासन देने लगा । उस दिन हृदय में श्राशा का एक क्षीण अंकुर पैदा हुआ । मानो मेरा नया जन्म हुआ; क्योंकि मैंने उस दिन प्रथम बार समझा कि मैं दुनिया से विच्छन्न एक स्वतन्त्र पिण्ड नहीं हैं, बल्कि चारों ओर के दुर अाक्रमणों के भीतर जकड़ी हुई हैं; तुम मेरे ऊपर विश्वास कर रहे हो न, अार्य ! मैं सुचरिता के इस अनावश्यक प्रश्न का कारण नहीं समझ सका। शायद बहुतों ने उसकी इस कहानी में सन्देह प्रकट किया हो, या उसे स्वयं मुझ पर विश्वास न रहा हो । परन्तु मुझे वाराणसी जनपद की वह वृद्धा हठात् याद आ गई, जिसने बड़े अाग्रह से अपनी बहू का हाथ दिखाया था और जानना चाहा था कि उसका लाल कब लौटेगा ? क्या सुचरिता ही वह बहू थी ? सुचरिता ने क्षण-भर तक मेरी श्रीर देख कर फिर कहना शुरू किया तो आर्य, ब्राह्मण यवा की भविष्य- वापी सत्य सिद्ध हुई । मैं अखण्ड सौभाग्यवती ही निकली । वही कहानी आर्य को सुना रही हूँ। मैं कान्यकुब्ज की और अपनी सास के साथ लौट रही थी। उस समय चैत्र का महीना था । सरोवरों में नए पद्म-फूल खिले थे । ग्राम की कोमल कलिकाएँ उत्सक चित्त को और भी उत्सुक बना रही थीं । मदमत्त कामिनियों के गण्डुप-जन के सेवन ग व कुल-वृक्ष पुष्पित होते ज? रहे थे। कालेयक-कुसम के कुड्- मलों पर मधुकर-कुल की कालिमा बिछी हुई थी। किशोरियों के दल में वाम पद की नूपुरमय चरण-ताड़ना से अशोक को पुष्पित करने की अहमहमिका पड़ गई थी। सहकार तरुओं पर झंकार-मुखर भ्रमरों की चढ़ाई हो चुकी थी । अविरल निपतित कुसुम-धूलि की धवलिमा