बाण भट्ट की आत्मकथा २६६ उस आम्रवनी की ओर अग्रसर हुई । मेरे मन में एक अकारण कौतू- इल का भाव था। यह हतहृद्य बट्ट मुझे ऐसा लग रहा रहा था कि कोई बलात् मुझे उधर खींच रहा हैं, मानो वह वस्तु निश्चित रूप से वहाँ प्राप्त होगी, जिसके प्रभाव से मैं इस प्रकार भूली-सी, भ्रमी-सी उन्मना हो गई हैं। क्या देखती हैं। कि अाम्रवनी के भीतर से एक तरुण तापस स्नानार्थ सरोवर की ओर आ रहे हैं । यह क्या देखती हूँ, अार्य १ शिव के तृतीय नयन की वह्नि शिखा में अपने मित्र को भस्म होते देख वसन्त ने ही वैराग्य ग्रहण किया है, या फिर महादेव के शिरःस्थित चन्द्र ने ही अपना मण्डल पूर्ण करने के लिए तपस्या करना शुरू किया है, या स्वयं काम- देवता को प्रसन्न करने के उपरान्त अपने पाप के प्रायश्चित्त में यह कठोरचय प्रारम्भ की है १ अत्यन्त तेजस्विता के कारण उस मुनि- कुमार को देख कर ऐसा लग रहा था, मानो वे चंचल विद्यु पुज के भीतर विराजमान हों, या ग्रीष्मकालीन सूर्य-मण्डल के भीतर प्रविष्ट हों, या अग्नि शिखा के मध्य शोभमान हो । प्रदीप के प्रकाश के समान पिंगल वर्ण की घन तरल देह-प्रभा द्वारा वे सम्पूर्ण वन को पिंगल वर्ण की छटा से उद्भासित कर रहे थे। उनके दीर्ध नयनों को देखकर ऐसा लग रहा था कि वन के सभी हरियों ने मिलकर उन्हें अपनी नयन-शोभा दान कर दी है। उनके केश विहीन मुण्डित मस्तक के नीचे वैराग्य के विजय-केतन के समान तीन डी रेखाएँ तरल देहछटा के भीतर से लहराती-सी दिख रही थीं। उन्होंने लाल कौशेय वस्त्र का एक विचित्र चीवर धारण किया था, जिसे देख- कर मुझे ऐसा लगा, मानो नवयौवन का राग हृदय में नहीं अँट सका है, इसलिए वह वस्त्रों तक फट अाया है, उनके उतरोष्ठों पर ईषत् काली मसि-रेखा भीन रही थी, जो मुख-पद्य के मधु के लोभ से बैठी हुई भ्रमरावली की भाँति मन मोह रही थी । उनके एक हाथ