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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा २७१ किया—उनकी सौन्दर्य-समृद्धि ने, मेरे चंचल चित्त ने, मेरे नवयौवन ने, अनुराग ने या अन्य किसी बात ने १ मैं उस समय उन्हें इतने आग्रह से क्यों देखने लगी, यह बात मैं स्वयं भी नहीं जानतः । मुझे आश्चर्य होता है, अार्य, कि मैं वहाँ काठ-प्रतिमा की भाँति खट्टी कैसे रह गई । मेरी अखेि मुझे खींचकर उनके पास पहुँचा देना चाहती थीं, हृदय मानो सामने की ओर से मुझे घसीट रहा था, अनुराग मानो पीछे की ओर से धकेल रहा था और मैं हतभाग्या विविध आकर्षणों के घात-प्रतिघात से स्थिर काष्ठ-प्रतिमा की भाँति स्तब्ध बनी रही। फिर मेरे मन में आशंका हुई कि मैं कोई भयंकर पाप भावना का श्राखेट बनी हैं। कहाँ यह देदीप्यमान तेज और तपस्या का अाधार और कई प्राकृत जन-सुलभ अनुरागान्ध भावे ! यह क्या मनोजन्मा देवता का उत्पात है, या पूर्व जन्म का कोई दुर्वार योग उपस्थित हुअा है । मैं समझती हुई भी क्यों इस प्रकार रागोत्सुक हो रही हूँ। घटी-भर तक सोचने के बाद मैं अपने को सँभालने में समर्थ हुई । मैं वहाँ से हट जाने को उद्यत हुई और सहज-भाव से प्रणाम करने की चेष्टा करने लगी। उस समय भी मेरी अखें उनके मुख- मण्डल से हट नहीं सकीं । नयन-पक्ष्म तब भी नि:स्पन्द थे, मेरे ईष- दुल्लसित कणं-पल्लव नाममात्र को कपोल-मण्डल से हटे हुए थे, केश- भार स्कन्ध देश पर ज्यों के त्यों लम्बित थे और कानों के कुण्डल कन्थे पर तब भी झूल रहे थे ।—छिः, आर्य, निर्लजता की भी एक सीमा होती है ! सचरिता अपनी कहानी सहज भाव से कहती जा रही थी; परन्तु यहाँ श्राकर उसके कण्ठ में थीड़ी-सी जङ्गिमा आ गई। चन्द्रमा की की धवल ज्योतिर्धारा सीधे उसके मुख पर पड़ रही थी । उसका मुख उस श्वेत अावरण से जितना ही उद्भासित था, उतना ही अवृित्त भी । परन्तु इस बार जी लालिमा उसके मनोहर मुख पर अनायास ही