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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३७२ बाण भट्ट की आत्मकथा खेल गई, उसे यह श्वेत श्रावरए भी नहीं छिपा सका। जाह्नवी की धारा में प्रतिफलित रकोत्पल की भाँति, जल-चादर के भीतर से परि- दृश्यमान दीप-शिखा की भाँति, शरत्कालीन मेघों से अन्तरित बाल- सूर्य की प्रभा के समान वह लालिमा अधिकतर रमणीय होकर प्रकट हुई । केवल एक क्षण के लिए उसकी दृष्टि नीचे की ओर झुकी और दूसरे ही क्षण वह सजग हो गई । बोली-'क्यों ऐसा होता है, आर्य १ क्या पूर्वजन्म का बन्धन है यह, या परजन्म का निमित्त है १ जिस प्रचण्ड दुवर शक्ति के इंगित-मात्र से लजा का जन्म लालित बन्धन इस प्रकार शिथिल हो जाता है, वह क्या पाप है ? उसे राक्षसी शक्ति क्यों समझा जाता है अार्य ? मैंने जितने लोगों को यह कहानी सुनाई है, उन सबने ही बुद्धिमान को भाँति सिर-हिलाकर मुझे पापकारिणी बताया है । दीर्घकाल तक मैं स्वयं अपने इस अकारण आरोपित पाप- भावना की चिताग्नि में जलती रही हूँ । वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज़ है कि प्रेम के देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके गौरव अनु- भव करें ? वह देर तक मेरी ओर उत्तर की अाशा से देखती रही। मैंने संक्षेप में उत्तर दिया---‘प्रश्न विभज्यवचनीय है, देवि ! आप दो बातों को एक करके पूछ रही हैं । कालिदास ने प्रेम के देवता को वैराग्य की नयनाग्नि से भस्म नहीं कराया है, बल्कि उसे तपस्या के भीतर से सौन्दर्य के हाथों प्रतिष्ठित कराया है। पार्वती की तपस्या से सच्चे प्रेम के देवता अविर्भूत हुए थे । जो भस्म हुश्रा, वह आहार- निद्रा के समान जड़े शरीर का विकार्य धर्म-मात्र था । वह दुर्वार था; परन्तु देवता नहीं था । देवता दुर्वार नहीं होता देवि ! विभज्य- वचनीय है तुम्हारा प्रश्न । मैं पूरी कथा सुनना चाहता हूँ ।' सुचरिता चकित भृग-त्रक की भाँति श्राश् वयं-विस्फारित नयनों से मुझे देखती हुई बोली --- 'क्या कहा आर्य, पार्वती ने शिव की क्या एकमात्र देवता के रूप में अराधना नहीं की थी ? क्या उनका व्रत जड़ शरीर-धम