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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्मकथा २३ का पाप-आकर्षण-मात्र था ? ब्रज-सुन्दरियों ने निखिलानन्द-सन्दोह मुकुन्द की विग्रह-माधुरी के प्रति जो आकर्षण दिखाया, वह क्या प्रेम नहीं था १ फिर क्यों कहा गया है आर्य, कि ब्रज-सुन्दरियों का प्रेम ही काम है और काम ही प्रेम है ११ क्या पार्वती की वह आसक्ति एक बाह्य जड़ धर्म थी ११ क्षण-भर में मेरे सामने पार्वती का तपोनिरत वेश विद्युच्छटा की भाँति खेल गया, और कालिदास के अपूर्व वर्णना- नैपुण्य से प्रतिफलित वह मूर्ति याद आ गई, जो शिला पर शयन करती थी, अनिकेत-वासिनी थी, धूप-वर्धा-अधी-तूफान में स्थिर खड़ी रहती थी। केवल महारात्रि ही अपनी विद्युन्मयी दृष्टि से बीच-बीच में झाँककर उस महातपस्या की साक्षी बनी रही ! पार्वती की उस अवस्था से सुचरिता की इस अवस्था में कितना साम्य है और फिर भी कितना वैषम्य है । मैंने स्नेह-तरल स्वर में कहा-पार्वती ने ठीक ही शिव को अपना सर्वस्व समझा था, देवि ! किन्तु दोष शिव की ओर से हुआ था। उन्होंने अपने चित्त-विकार के हेतु को दिशा के उपान्त-भाग में खोजा था। चित्त जड़ प्रकृति का चेतन के संसर्ग से उत्पन्न विकार मात्र है, शुभे !! परन्तु मुझे पूरी कथा सुनने का आग्रह है ।' 'बहुत परवर्ती ग्रन्थ 'भक्तिरसामृतसिन्धु' के इस वचन से तुलना की जा सकती है-- | ‘प्रेमैरी अजरामाण काम इत्यभिधीयते ।

  • तुल० (कुमारसम्भव, ५।२१)--

शिलाशयां तामनिकेतवासिनीं निरन्तरास्वन्तरवाष्पवृष्टिसु ।। ब्यलोकयन्नुन्सिवितैस्तचिन्मयैर्महातपः साक्ष्य इव स्थिताः झपाः ।। तुल० (कुमारसम्भव, ३/६४)- हेतु स्वचेलोविकृवेदिधुर्दिशामुपान्तेषु ससर्ज रष्टिम् ।