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बाण भट्ट की आत्म-कथा

माणु भट्ट की अस्मि-कथा २७५ कहानी सुना रही थी, उसकी आँखों में प्रश्न -धारा श्रावण मास की वारि-धार के समान झड़ रही थी, और पुत्र निर्विकार भाव से उपदेश देता जा रहा था, मानो वह अपनी माता को पहचानता ही नहीं, मानो उसको अपनी माता भी सौ-पचास अन्यान्य अर्याक्रों की भाँति एक सामान्य प्राय हा ! मेरा स्त्रीत्व इस ढोंग को बर्दाश्त नहीं कर सका ; परन्तु कुछ बोल न सकी। लज़ा से कण्ठ रुद्ध हो गया। अन्त में माता ने ही दूसरा रूप धारण किया-“अरे ओ मूढ़, रटी हुई बोली बोल रहा है तु ! भण्ड है वह धर्माचार, जो अपनी माता को भी पहचानने में लज्जा अनुभव करता है। इस दुःखमय संसार को अौर भी दुःखमय बना कर ही क्या तेरा सुख का राजमार्ग तैयार होगा ? स्वार्थी है तेरा मार्ग, धिक्कार है तेरे पौरुष को ! तपस्वी का चित्त गला । उन्होंने एक बार मेरी ओर देखा, एक बार अपनी माता की ओर । माता ने मेरी ओर देख डॉटकर कहा-“ताकती क्या है। अभागी, यही तेरा पति है, यही ते देवता है । श्रा, इसके चरणों में अपने को समाप्त कर दे । मरती क्यों नहीं भाग्यहीना, मैं मरकर तुझे सिखा दूगी कि भरना क्या होता हैं ? इसने तेरा हाथ पकड़ा था, यही तेरा निबाहने वाला है । , तू इसी की शरण । मैं चलती हूँ । बहुत से चुकी हूँ । आज मैंने अपना खोया धन पा लिया है। मैं इस बार नहीं चूकेंगी। यह मेरी समाप्ति है । इतना कहकर माता ने ज़ोर से वक्षःस्थल पर कराघात किया, और कटे रूख की तरह तपस्वी की गोद में लुढ़क गई । क्षण-भर में मेरे सामने अन्धकार छा गया । ‘हाय अम्मा', कहकर मैं भी माता के अवश शरीर पर गिर पड़ी । थोड़ी देर बाद मैं जब होश में आई, तो क्या देखती हूँ कि तपस्वी के तेजोमण्डित मुख-मण्डल में विकार का धूम छा गया है । उनके बड़े-बड़े नयन-कोशों से मुक्ताफल की धारा के समान अश्रु झर रहे हैं। मैं लजिता, शोकात्त, हतबुद्धि और कर्त्तव्य-ज्ञानविरहिता होकर