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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा ३७७ होगा ११ तपस्वी ने वापरुद्ध कण्ठ से फिर कहा---‘घबराअो मत भद्र', माता को जिलाना मेरे हाथों में है । वे कुछ सन्नद्ध-से होकर सेवा करने लगे। मुझे भी नाना भाव से सेवा करने का आदेश करने लगे। थोड़ी देर बाद माता जब सचेत हुई, तो उन्होंने अकम्पित स्वर में कहा---‘माँ, तू जो कहेगी, वही करूगा ।' माता ने स्नेह-गद्गद् हो उनका सिर चूम लिया। उनके वक्षःस्थल से दूध की धारा बह निकली। धे तपस्वी को दो वर्ष के शिशु के समान गोद में लेकर दुलराने लगी। फिर बोलीं- 'तु सत्य कहता है, मेरा लाल ! मैं जो कहूँगी, वही करेगा तपस्वी ने सहज स्वर में कहा--निश्चय करू गा, माँ !; माता ने कहा--'तो पकड़ इसका हाथ ! एक बार झूठा बन चुका है, दूसरी बार फिर झूठा न बन ।तपस्वी ने एक बार आकाश की अर देखा, एक बार पृथ्वी की ओर । फिर मेरी ओर देखकर बोले-‘शुभे, माता की अशा तुमने सुमी है न ! मैंने सिर हिलाकर स्वीकृति बताई । तपस्वी ने कहा---'मैं माता की आज्ञा से तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहता हूँ। क्या तुम जीवन में मेरे लक्ष्य की ओर बढ़ने में मुझे सहायता पहुँचाने को तैयार हो ! मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया । लज्जा के भार से मेरी ग्रीवा जो झुकी, सो मानों टूट ही गई, उठने का नाम ही नहीं। माता ने स्नेहपूर्वक कहा-हाथ बढ़ा दे, बेटी ! और मेरा पाणुि-ग्रहण हो गया ! माता ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया और पुत्र से कहा--- अब चल बेदा, मेरे साथ ।' पुत्र ने माता के चरणों पर सिर रख दिया और गिड़गिड़ाकर कहा---एक बार गुरु की अनुमति लेने की आज्ञा दे दो, माता ।' आशा मिल गई । वे चले गए। फिर क्या हुआ, सो मुझे नहीं मालूम । पर फागुन की पूनों को वे मेरे यहाँ लौट आए और मुझे अवधूत अधोरभैरव के पास ले गए । अवधूतपाद के आदेश से ही हम दोनों ने अपने वर्तमान गुरु से दीक्षा ली है । परन्तु आर्य, मेरे पति जब लौट कर आए, तो माता को नहीं देख सके । माता पहले ही स्वर्ग