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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२७८ वाणु भट्ट की आत्मकथा यात्रा कर चुकी थी। मैं दुनिया को अाधी कहानी ही बता सकी हूँ। माता के अभाव में आधी बाकी रह गई थी । कल अचानक इस अधी कहानी की सचाई का प्रमाण मिल गया है। श्र ट्री धनदत्त ने मेरे पति को पहिचान लिया है। यह व्यवहार सिद्ध करता है कि अाधी कहान भी गोपन नहीं रहेगी । सुचरिता अपनी कहानी कहकर मेरी और एक दीर्घ-स्थायः दृष्टि से देखती रही, मानो कुछ सुनने की प्रतीक्षा में हो । परन्तु मैं दूसरी ही चिन्ता में था । मैं अवधूत अधर भैरव के पास प्रथम समारत विरतिवज्र को स्मरण कर रहा था । ग्राइज मैं समझ सका कि उस शान्त-स्निग्ध मुख-श्री के भीतर कितनी व्यथा थी । समस्त वेदना, अनुताप और अनुशय को पीकर जो निधु म अग्नि-ज्योति के समान अविकृत तेज उस मनोरम सुख से प्रकाशित हो रहा था, वह निस्सन्देह समुद्र- गम्भीर हृदय का निदर्शक था। मैं सुचरिता के विषय में भी सोचता रहा । कितना सहज भाव है, कैसा अकृत्रिम व्यवहार है ! हा, कांचन पद्मधर्म शरीर में ही मृदुता और ससारता रह सकती हैं ! क्षण-भर रुक कर मैंने पूछा---‘अविनय मन में न लाशो देवि, तो मैं पूछना चाहूँगा कि आधी कहानी गोपन रख कर तुमने उसे क्यों विकृत होने दिया ?? सुचरिता ने बिना हिचक के छूटते ही जवाब दिया--‘अाधी कहानी ही मेरा अपना सत्य है, आर्य ! अगर परवर्ती श्राधी कहानी ने भी घटी होती, तो उतने की सचाई में मुझे कोई सन्देह नहीं रहता। बाकी आधी माता की गवाही की अपेक्षा रखती थीं । तुमने जितने सरल भाव से इसे उत्तराद्ध' पर विश्वास कर लिया है, उतने सरले भाव से और कोई विश्वास नहीं करता है? मैंने ज़रा संकोच के साथ ही प्रश्न किया---उत्तरार्द्ध का तुम्हें श्राधा ही मालूम है, देवि ! श्राधा मुझे मालूम है ! तुमने क्या इसमें कुछ छिपाया नहीं है १ सुचरिता की सहज-मनोहर अखि में हँसी का भाव तरंगित हो गया, बोली-