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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२८० बाणु भट्ट की अत्मि-कथा हृदय दाही प्रमाग्नि का धुझाँ भीतर लग रहा होगा और उसने अजन्न वारि-धारा झड़ रही होगी; दीर्घ निःश्वास-वायु से लता-कुसुम काँप उठे होंगे और उनके कुसुम-रेणु दिङ मण्डल में चिकीर्ण हो रहे होंगे। इसी अवस्था में गुरु ने उन्हें अचानक पुकारा होगा । जब अार्य विरतिवज्र गुरु की वाणी सुन धड़-फड़ाकर उठे होंगे, तो वृक्षों ने कुसुम-रेणु छिड़क कर मनोभव देवता के वशीकरण-चूर्ण का प्रभाव विस्तार किया होगा, अशोक-पल्लवों ने मृदुस्पर्श से अपना राग संचारित कर दिया होगा, वनलक्ष्मी ने नवीन राज्य में प्रवेश करनेवाले युवराज की भाँति उस अपूर्व मनोहर किशोर तापस के भलिपट्ट पर मधु-विन्दुओं को अभि- षेक किया होगा, और वसन्त-काल ने कोकिलों के संगीत से, भ्रमरों के गुजार से, चम्पक-कलिका के प्रसाद से और सहकार मंजरी के मांगल्य से उनका अभिनन्दन किया होगा ! तुमने क्या उस दिन इस बात का कोई चिह्न नहीं देखा था, देवि ! तुम मुझसे छिपा रही हो न १? सुच- रिता ने अखें झुका लीं और हँसी की तरल धारा में तरंगित-सी होती हुई बोली-‘तुम तो परिहास कर रहे हो, आर्य !! थोड़ी देर तक सुच- रिता चुपचाप अपने-अप में ही बहती-उतराती रही। फिर अवसर देख कर मैंने पूछा-'इस व्यवहार में धनदत्त ने जो ऋण का प्रश्न उठाया है, वह क्या सत्य है, देवि !! सुचरिता ने ज़रा उत्त' जित होकर कहा--- 'एकदम असत्य है, अार्य ! मेरी सास ने इसकी कोई चर्चा नहीं की, और मेरे पति यदि प्रव्रजित हुए थे, तो मैं तो बराबर ही यहाँ थी, क्यों नहीं धनदत्त ने कभी इस ऋण की चर्चा की है और आर्य, यह अत्यन्त मिथ्या कथन है कि आर्य विरतिवज्र गृहस्थ हो गए हैं। वे जो-कुछ कर रहे हैं, वह सम्पूर्णतया अपने गुरु की अनुमति से । दुनिया इसे जो समझे; परन्तु वे पहले जो थे, वही अब भी हैं। गुरु के निदेश के उन्होंने साधन-मार्ग बदल दिया है। अब भी वे धर्म के वैसे ही ऋगार हैं, जैसे पहले थे ।'