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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२८४ बाण भट्ट की आत्मि-कथा उद्र क के साथ अखण्डानन्द-सन्दोह परम ज्योति की दीप्ति से इतना भास्वर हो गया हो ? कौन कहता है, यौवन अन्ध और दुर्ललित है ? उसमें अपूर्व उन्नायक गुण भी तो हैं ! सुचरिता ने मुझे प्रणाम करते देखा, तो व्यस्त हो गई । बोली-आर्य, मुझे अपराधी बना रहे हैं ! और उस निगड़बद्ध अवस्था में भी साष्टांग प्रणिपात करके उसने अपने अपराध का मार्जन किया । उलाहने के स्वर में बोली--‘मुझे लजित करने का आपने क्या कारण देखा, आर्य ? अभ्यास-दोष से कुछ अधिक बोलकर अपने को ज्ञानी दिखाने का प्रयत्न किया है, यही न ? क्षुद्रता का बन्धन बड़ा कठोर है, अर्य, जल्दी छूटता नहीं। मेरे पति देव ने एक बार जो ग्टी बोलियों का बोलना बन्द किया, सो अभी तक बन्द ही किये हुए हैं, और मैं भाग्यहीना अब भी रटी बोली बोलती जा रही हूँ ! पर अनुताप भी क्या करू, मैं ऐसी ही हूँ, अच्छी या बुरी, निन्दिता था अवमानिता। मैं नारायण पर उत्कृष्ट पुष्प-वृन्त के समान गन्धहीन होकर भी सार्थक ही हूँ। मेरा मानपराध मन में न लाना, अार्य ! मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-'तुम सार्थक हो, देवि ! तुम्हारा शरीर और मन सार्थक है, तुम्हारा ज्ञान और वाणी सार्थक हैं, सब से बढ़कर तुम्हारा प्रेम सार्थक है । तुमको प्रणाम करके भव- सागर में निलेक्ष्य बहने वाले अकर्मा जीव भी सार्थक होंगे । तुम सतीत्व की मर्यादा हो, पातिव्रत्य की काष्ठा हो, स्त्री-धर्म का अलंकार हो ।' सुचरिता ने बीच में ही टोक कर हँसते हुए कहा---'तुम तो कविता करने लगे, अार्य ! मैंने इसका व्यंग्या समझा । विरतिवज्र की काल्पनिक मूर्ति रचकर मैंने सुचरिता के स्नेह-मृदुल हृदय में जो आनन्द उल्लसित कर दिया था, उसकी स्मृति उसके मन से हटी नहीं थी । उसे अाशंका हुई कि मैं फिर कहीं काल्पनिक सौन्दर्य-मूर्ति गढ़ना न शुरू कर दें । जिसे वह मनोजन्मी देवता कहती रही, उसे मैं बराबर जड़ शरीर-धर्म समझता