पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२९७

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पंचदश उच्छ्वास भद्रेश्वर दुर्ग का समीपवर्ती दुर्गम शरकान्तार दिखाई पड़ा। रजत पट्ट के समान दूर तक चमकते हुए वालुका प्रान्तर को आच्छा- दित करके वह झूना शेरवान्तार इस प्रकार झूम रहा था मानों ज्वलन्त धरित्री की सहस-सहसे जिह्वाएं अकाश तक फैल जाने की तैयारी कर रही हों । रह रह कर वात्या-लुठित बालुका राशि उधूम अग्नि कुण्ड की भाँति चित्त को भयभ्रान्त कर रही थी-नीचे से ऊपर तक कहीं भी शीतलता का नाम नहीं था मैं निरन्तर कई दिनों से घोड़े की पीठ पर सवार भागा आ रहा हूँ । एक बार भट्टिनी का चिन्ता-कातर मुख मन म उदय होता है, दूसरी बार सुचरिता का प्रसन्न रूप । एक भद्र- श्वर की और खीच रहा है दूसरा स्थाएवीश्वर की ओर । मुझे स्था- एवीश्वर की घटनाएँ दर्पण में प्रतिभात छाया की भाँति सर्वत्र स्पष्ट दिखाई दे रही हैं । सुचरिता को कारागार से छुड़ाकर जब मैं वेंकटेश भट्ट के पास ले आया तो वहाँ अवधूतपाद और महामाया भी उपस्थित थीं। वह अपूर्व दृश्य था । सुचरिता चुपचाप प्रणाम करके एक कोने में बैठ गई, मैंने भी अनुकरण किया। देर तक वहाँ निःस्तब्धता का राज्य रहा। अवधूतपाद ने महामाया को लक्ष्य करके कुछ थोड़े से शब्द कहे थे । मैं जब-जब उन शब्दों को स्मरण करता हूँ तब-तब सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठता है। न जाने क्या घटने वाला है ! बाहर सब कुछ जल रहा है, काल देवता की विकट भृकुटियाँ किसी को छोड़ना नहीं चाहतीं । भद्र श्वर के सौध शिखरों को देख कर भट्टिनी की चिन्ता ही मेरे चित्त में प्रधान हो उठी । आज दीर्घ काल के बाद भट्टिनी को देख सकेंगा । परन्तु मुझे राजकार्य भी करना है।