धारा ही उमड़ पड़ी । वह एक ही साँस में न जाने क्या-क्या कह गई। अन्त में पादहित सिंहिनी की भाँति गर्ज कर अपनी कन्धा झाड़ते हुए उसने कहा--- **धिक्कार है भई, तुम कैसे भट्टिनी का अपमान करने पर राजी हो गए ! कान्यकुब्ज का लम्पट-शरण्य राजा क्या भट्टिनी के सेक को अपना सभासद् बनाने की स्पद्धा रखता है ? किस बुद्धि ने तुम्हें मौखरियों की रानी का निमन्त्रण ढोने को उत्साहित किया ? धिक्कार है भट्ट, तुम अत्यन्त सहज बात भी नहीं समझ सके ? क्या इस पत्र को चिथड़े कर फेंक देने लायक शक्ति भी तुम में नहीं थी ?--- कहते-कहते भावावेश में वह सचमुच ही उस पत्र को चिथड़ने लगी ।। उसकी अगुलियां इतनी तेज़ी से चल रही थीं मानों जल्दी से जल्दी वह मौखरियों के प्रत्येक वंशधर को रगड़ देना चाहता हों । भट्टिनी ने निपुर्णिका को धीरे धीरे अपनी ओर खींच लिया। वे बड़े प्रेम से उसके ललाट पर हाथ फेरती हुई बोलीं - ‘ना बहन, ऐसा भी कहते हैं ! भट्ट हमारे अभिभावक हैं उनको सबै करने का अधिकार है। हमारे मंगल के लिये और सारे देश के मंगल के लिये उन्होंने जो कुछ भी किया है वह हमें मान्य होना चाहिए। तु अपनी भट्टिनी को इतना क्या समझती है बहन ! छिः, इतना उत्तेजित हुश्रा जाता है । निपुरिणका भट्टिनी की गोद में अवसन्न होकर गिर पड़ी उसकी आँखों से अविरले अश्रु-धारा झड़कर गण्डस्थल को धोने लगी। | अब भट्टिनी मेरो ओर फिरीं। उन्होंने पहले से भी अधिक करुणा भरी दृष्टि से मुझे देखा । बोलीं, 'निपुणिका का अपराध क्षमा करना भट्ट, यह बहुत दुर्बल हो गई है, सहज ही उत्तेजित हो जाती है, उस- का स्नायुमंडल बहुत कमज़ोर हो गया है। कुछ देर तक वे निपुणिका के ललाट पर हाथ फेरती रहीं, ऐसा जान पड़ता था कि राहु-ग्रास से निकले हुए चंद्र-मण्डल पर कल्पना का किसलय सुधा का लेप कर रहा हो । निपुण का धीरे धीरे अवसन्न ही होती गई, उसकी अखें