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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६.०। बाण भट्ट की आत्म-कथा बंद हो गई, ऐसा जान पड़ा कि वह एकदम सो गई । भट्टिनी उसके ललाट पर हाथ फेरते फेरते कहने लग—अाजकल ऐसा ही हो रहा है । उत्त जित होती है और अवसन्न होकर गिर जाती है । अच्छा भट्ट, महामाया माता से तुमने इसकी अवस्था बताई थी ?मैं अब तक लज्जा के समुद्र में डूबता-उतराता अपने को हतबुद्धि पा रहा था। भट्टिनी ने चतुरता-पूर्वक मेरा ध्यान दूसरी ओर खींचा । मुझे वह औषधि याद आई जिसे अपराजिता पुष्प के रस में मिलाकर निपुणिका को देने के लिये अवधूत पाद ने दिया था। मैंने औषधि भट्टिनी को दे दिया, परन्तु साहस-पूर्वक अखि उठाकर उनकी ओर देख नहीं सका। भट्टिनी मेरी अवस्था देख कर बहुत कष्ट पा रही थीं । मेरा चित्त अन्यत्र नियोजित करने के उद्देश्य से ही वे नाना भाव से निपुणिका की सेवा करने का आदेश देने लगीं । शय्या ठीक की गई, व्यजन किया गया, शीतल जल से उपचार किया गया और अन्त में निपुणिका को चुपचाप वहीं छोड़कर आंगन में चलने का निश्चय किया गया। | चुपचाप भट्टिनी का आदेश पालन करता गया परन्तु एक क्षण के लिये भी निपुणिका के कड़े धिक्कार-वाक्यों की चोट को नहीं भुला सका। मुझे अपना प्रमाद स्पष्ट समझ में आ रहा था। मैंने यह क्या किया ! क्यों मेरी बुलि इतनी भोथी हो गई थी। हाय अभागे बंड, तुमने भट्टिनी का सम्मान बचाने के लिये अपने को विपत्ति में क्यों नहीं झोंक दिया है जिस समय यह गर्वित कान्यकुब्जेश्वर ने तुम्हें लम्पट कहा था उस समय तुमने भट्टिनी के सेवक के उपयुक्त उत्तर क्यों नहीं दिया है धिक् भाग्यहीन, धिक् !मौखरियों की रानी का निमंत्रण तुम्हें कान्य कुन्जेश्वर के सामने ही पैरों से कुचल देना था। परन्तु मेरा सारा स्वाभिमान उस समय कहाँ चला गया था ? हाय, मैंने भट्टिनी को अपमानित होने दिया है, मेरे पाप का कोई प्रायश्चित्त नहीं है । तुषाग्नि में जलने से भी यह पाप प्रश्रमित नहीं होगा।