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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की अात्म-कथा ३६.१ अाँगन में आकर भट्टिनी ने हँसने का प्रयत्न किया । वे दिखाना चाहती थीं कि उनके मन में कोई दुःख नहीं हैं, ग्लानि नहीं हैं, लज्जा नहीं है। उनके प्रफुल्ल कमल के समान मुख पर यह प्रयत्न-साधित हँसी बहुत मनोहर लगती थी । मेरा हृदय इस हँसी से और भी फटने लगा । आहा, इस देवदुर्लभ महिमा को मैंने लांछित होने दिया है । मैंने इस कमल -कोमल हृदय पर अधात पहुँचने दिया है। मेरा हृदय गल कर इस देवी के चरणों पर दरक जाने को व्याकुल हो गया । मेरा गला ६५ गया, वाक् शक्ति लोप हो गई, अविरल अश्रु-धारा से दृष्टि आच्छादित हो गई, लजा और अनुताप से सारा शरीर दग्ध होने लगा । मुझे दिशाएँ शून्य-सी लगने लगीं । मैं स्थिर खड़ा नहीं रह सका, सिर घूम गया और मैं बैठ गया। भट्टिनी मेरे निकट अाई; बड़े स्नेह से उन्होंने मेरे ललाट पर इाथ दिया फिर आवेगभरी भाषा में बोल उठीं—'तुम भी उत्तेजित होते हों भट्ट, निपुणिका की बात से तुम इतने विचलित हो गए १ उठो, देखो, तुम इस अपनी अभागी भट्टिनी की ओर देखो। तुमने कोई अपराध नहीं किया है। अगर तुम कान्यकुब्जेश्वर के सभा- सद् हो गए तो इसमें मेरा अपमान कहाँ हुआ ? क्यों व्यर्थ विचलित होते हो १२ मेरी संज्ञा धीरे-धीरे लौट आई। घुटनों के बल बैठ कर मैं केवल इतना ही कह सका --‘देवि, तुम सब क्षमा कर सकती हो, तुम सब भुला सकती हो, पर अभागा बाण कैसे शान्ति पा सकेगा १० भट्टिनी के चेहरे पर एक विचित्र कातरता दिखाई दी । उनका वचन रुद्ध हो गया था किन्तु अखे बहुत-कुछ कह रही थीं। उनका मुंह पीला पड़ गया था और फिर भी रह-रह कर उसमें इस प्रकार रोमांच हो आता था मानो भागा हुआ कदम्ब कोरक सूर्यातप में उभरती जा रहा हो । मैंने फिर व्याकुल होकर कहा-'देवि, मैं अनुताप के समुद्र मैं खूब रहा हूँ, लजा के महापंक में निमग्न हूँ, मुझे कर्तव्य नहीं सूझ रहा है । निपुणिका ठीक कहती है । मौखरियों का निमंत्रण मुझे उसी