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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६३ वाण भट्ट की आत्म-कथा समय पैर से कुचल देना चाहिए था। जिसे भट्टिनी का सेवक होने को गौरव प्राप्त हो उसे सम्राटों का सभासद् यह नहीं शोभता । परन्तु देवि, मैं न जाने किस शक्ति के दुवर आक्रमण मे हतबुद्धि हो गया था । मैं किस मुंह से अपना अपराध क्षमा कराऊँ ? भट्टिनी अब अपने को रोक नहीं सकीं । उनको मुखमंडल उदय- गिरि के तटान्त-लग्न चंद्र-मण्डल के समान लाल हो गया । बोलीं-मैं ऐसा नहीं समझती । तुम कुमार कृष्ण के कृतज्ञता-पाश में बद्ध थे । तुमने जो-कुछ किया है कुमार के अनुरोध से किया है । निपुगिका नहीं समझती, मैं समझती हैं। क्यों तुम कुमार के कृतज्ञ हुए ? मेरे ही लिये न ? भट्ट, तुमको अपराधी समझने के पूर्व मेरा खण्ड-खण्ड उड़ जाना अच्छा है । तुमने मेरा अपमान कहीं भी नहीं होने दिया है । निपु- णिका स्नायु दुर्बलता वश अनाप-शनाप बक गई है। तुम जो करोगे वही मेरे लिये विधि है । भट्ट, मुझे मुस्वरा बनने के दोष से बचाश्रो । विश्वास करो, तुम जो चाहोगे वहीं मेरे लिये धर्म होगा । उदो भट्ट, मुझे सम्हालो, मैं इतनी लजा का भार नहीं हो सकेंगी ।' क्षण भर में मेरी जड़िमा दूर हो गई । कुज्झटिका के हट जाने पर जिस प्रकार दिमण्डल प्रसन्न हो जाता है । अंधकार के दूर होने पर जिस प्रकार पूर्व दिगञ्चल निर्मल हो जाता है और मेघ-पटल के कट जाने पर जिस प्रकार शारदीय नभोमण्डल अकल्मष हो जाता है उसी प्रकार मेरा मन प्रसन्न हो गया । भट्टिनी की आँखों में मैंने एक अपूर्व माधुरी देखी । मुझे ऐसा लगा कि मेरे अनेक जननान्तर कृतार्थ हो गए हैं । वह दृष्टि मुझे अभिनव रस से सींचती हुई-सी, स्नेहधारा से प्लावित करती हुई-सी, एक अननुभूत जगत् में खींच ले अाई । मैं ससाध्वस उठ उड़ा हुआ और वे वल इतना ही कह सका--'देवि, भट्टिनी ! और मेरा कंठ वाष्प गद्गद हो गया । सजल नयनों से मैंने साहसपूर्वक उनकी ओर देखा। वे कुछ बोलीं नहीं, सिर्फ एक करुण मनोहर