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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा २६३ अपांग से मेरी अोर देख कर अखें झुका लीं । उस समय भगवान् मरीचिमाली पश्चिम-सरोवर की ओर झुक गए थे, धरित्री से प्रकाश रुक लाल किरणों का जाल बिछ गया था, भवन दार्घिकाश्रों के सारस क्रेकार-पूर्वक अपने-अपने नियत स्थान पर लौट रहे थे, क्रीड़ामयूर वास यष्टियों की अोर उत्सुकतापूर्वक देखने लगे थे, जलहारिणी सुन्दरियों के नूपुर-विराव में मन्थरता की ध्वनि स्पष्ट होने लगी थी और नभीमण्डल से एक प्रकार की थकान धोरे- धीरे उतर कर सारे जगत् में व्याप्त होने लगी थी । भट्टिनी का मुख लज्जा से अारक्त हो उठा था, उनकी कपोल पालि में एक विचित्र प्रकार का विकास दृष्टिगोचर हो रहा था, उनके वक्रिम नयनपात में एक अद्भुत लचीलापन आ गया था। दीर्घकाले की सञ्चित मनोवेदना दूर हो जाने से जो निर्मल अानन्दधारा उस मनोरमें मुख पर दौड़ना चाहती थी उसे सहज अनुभाव की तरंगों से बराबर टकराना पड़ता था । आह, भट्टिनी की वह शोभा देखते ही बनती यी । प्रफुल्ल दमनक यष्टि के समान अंग-लता अनुभाव और लज्जा के आघात- प्रत्याघात से इस प्रकार हिल रही थी मानो आकाशगंगा के आवर्त में पड़ी हुई पारिजात लता हो । देर तक वे मेरी ताक नहीं सकीं। फिर धीरे-धीरे जाकर एक स्थंडिल-पीठिका पर बैठ गई। एक बार उन्होंने अपने सीमन्त को वासन्ती उत्तरीय के अचल से ढकने का प्रयत्न किया और धीरे-धीरे मेरी शोर दृष्टि उठाई । वह दृष्टि बड़ी मर्मभेदिनी थी । भट्टिनी ने एक बार फिर मुसकिराने की कोशिश की किन्तु सफल नहीं हो सके। ऐसा जान पड़ा जैसे शारदीय नभोमण्डल में एकाएक विद्युच्छटा आविभूत होकर विलीन हो गई', शोभा के समुद्र में केवल एक तरंग उठकर शान्त हो गई। मैंने हाथ बाँध कर प्रश्न किया-- ‘देवि, सेवक इस क्षमा-दान से कृतार्थ है पर मन में फिर भी लजा की गाँठ.अभी खुली नहीं है। यदि प्रसाद हो तो जानना चाहता हूँ।