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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा । २६५ समझा रही थीं। वह रो रही थी। मुझे देखकर वह उठने लगीं पर भट्टिनी ने उसे उठने नहीं दिया। उसकी ग्राँखें सहस्रधार होकर अपनी मनोव्यथा बहाने लगीं । मैंने निकट जाकर धीरे से पूछा, “कैसा लग रहा है, निउनिया ! उत्तर में उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और भी वेगपूर्वक झरने लगीं। भट्टिनी ने दुलार के साथ उसके ललाट पर हाथ फेरते हुए कहा-‘प्रसन्न हो निउनिया, भट्ट सुचरिता का संवाद सुनाएँगे | निपुणिका का चेहरा क्षणभर में खिल गया । एकाएक उसमें विचित्र शक्ति आ गई। बोली-मिली थी अर्य, वैसी है वह भाग्यहीना है। मैंने कहा-‘भाग्यहीना नहीं निउनिया, वह अखण्ड सौभाग्यवती है। उसका पति लौट आया है ।' निपुणिका की आँखें आश्चर्य और आनन्द से विस्फारित हो गई। बोली-‘सच !; मैंने रस लेते हुए कहा-‘सच !' इस समय जय-निनाद एकदम भट्टिनी के वास-गृह के द्वार पर अा गया। हम ने ध्यान से सुना तो मालूम हुआ कि सैकड़ों प्री- पुरुष अत्यन्त उल्लास के साथ देवपुत्र तुवरमिलिंद की जय-धोषणा कर रहे हैं। भट्टिनी ने कुछ आश्चर्य और जिज्ञासा से मेरी और देखा । इसी समय एक दासी ने आकर सूचना दी कि महासामन्त लोरिक देव अपनी रानी और अनुचरों के साथ द्वार पर खड़े हैं, उनके हाथ में पूजा के उपकरण हैं, वे अविलम्ब भट्टिनी के दर्शन का प्रसाद पाना चाहते हैं। भट्टिनी एक क्षण के लिए गंभीर हो गई । फिर उन्होंने स्वाभाविक स्वर में मुझे अादेश दिया-“देखो भट्ट, क्या बात है । मैं कुछ समझ नहीं रही हूँ। मैंने तुरत आदेश पालन किया । द्वार पर आकर देखा तो आश्चर्य से स्तब्ध हो गया। | शत-शत उल्काओं के प्रकाश में एक विशाल जनसमूह नृत्य-गान और वाद्य से दिङमण्डल को मुखरित कर रहा था । सब के आगे घोड़े पर लोरिक देव थे, उनके पीछे उसी प्रकार के घोड़ों पर मन्त्री और