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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६६ बाण भट्ट की अात्म-कथा राज पुरोहित थे। उनके पीछे पालकी पर लोरिकदेव की रानी थीं। और भी पीछे मल्लों का एक विशाल यूथ था । वे नाना भाव से व्यायाम-कौशल प्रदर्शन कर रहे थे । यह कौशल एक ओर जितना ही उद्दाम था, दूसरी ओर उतना ही संयत । एक ही साथ सैकड़ों मल्ल नाना शस्त्रों से सुसज्जित होकर विकट भंगिमाओं से अंग त्रोटन, नाटन, उन्मोटन, विकुचन और संतोलन की क्रिया दिखा रहे थे, उनके अविरल तालोट्टङ्कन से रह-रहकर दिगन्तर चटचटा उठते थे, धनुष्कांस्य और यष्टि कोशियों की झनझनाहट से शून्य प्रकम्पित हो उठता था, उद्दाम अंग-विकुञ्चन से दर्शकों की अाँखें चौंधिया जाती यीं, बार-बार ऐसा मालूम होता था कि एक का अंग मोटन दूसरे के विकुचन से उलझ जायगा, पर आश्चर्य तब होता थ, जब यह सारा छन्दोहीन विश्व खल व्यायाम-व्यापार एक ही साथ बन्द हो जाता था, समस्त मल्ल युगपत् उत्तम्भित होकर एक अद्भुत विरति-निनाद करते थे और क्षण भर में जन-समूह के इस सिरे से उस सिरे तक देवपुत्र तुवर मिलिन्द का जय निघष मेदिनी को प्रकम्पित कर देता था । भट्टिनी के गृहद्वार पर मल्लों का दल अपने व्यायाम में ज्यों-का-त्यों लगा रहने पर भी विचित्र संयम के साथ वर्तलाकार खड़ा हो गया और बीच में स्त्री-पुरुषों के पचासों जोड़े उसीके समानान्तर वर्तलाकार फैल गए । उनके हाथ में छोटे-छोटे काष्ठ-खण्ड थे । लोरिकदेव घोड़े से उतर गए। साथ ही मन्त्री और पुरोहित भी उतर गए। लोरिकदेव के इंगित पर सारा व्यापार रुक गया। उन्होंने मुझ से अत्यन्त विनयपूर्वक भट्टिनी को यहाँ ले आने का अनुरोध किया । बोले, “आर्य, देवपुत्र नन्दिनी को जब तक हम नहीं जानते थे तब तक हम से चाहे जितने भी अपराध हुए हों, क्षमा है। अब हम जान गए हैं तो उनकी पूजा में एक क्षण का भी विलम्ब असह्य है । तुमने कान्य- कुब्जेश्वर का पत्र मुझे दिया था। उस पत्र से सारी बाते मालूम