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बाण भट्ट की आत्म-कथा


२६.७ हुईं। तुम से हमें बहुत कुछ कहना है, पर इस विधि में देर होना एकदम वाञ्छनीय नहीं है । मैंने उनका संदेश भट्टिनी को कह सुनाया। वे कुछ क्षणों तक स्तब्ध-गंभीर होकर सोचती रहीं। फिर बोलीं-'तुम क्या कहते हो, चलें ? बिना कुछ सोचे ही मेरे मुख से निकल गया---'अवश्य देवि !'

भट्टिनी के आते ही लोरिकदेव ने तलवार खींचकर अभिवादन किया । साथ ही पुरोहित ने शंखध्वनि की। देखते-देखते देवपुत्र- नन्दिनी के जय-निनाद से दिशाएँ काँपने लगीं, भद्रश्वर दुर्ग के सौध कुहरों से प्रत्यावर्तित होकर वह ध्वनि और भी दीर्धायित्व हो गई । इसी समय लोरिकदेव ने अपनी बत्तीस अंगुलों की विशालअसि को ऊपर उठाया, देखते-देखते मल्ल की लाठियाँ खड़खड़ा उठीं । वह एक विकट व्यापार था । उल्काएँ उस यष्टि-संग्रह से काँप उठीं । ऐसा जान पड़ा कि प्रत्येक व्यक्ति उस विचित्र संघट्ट का आखेट हो गया हैं । परन्तु आश्चर्य यह था कि यद्यपि लाठियाँ अनवरत वेग के साथ घूम रही थीं; पर किसी को कोई आघात नहीं लगा, कोई भीविचलित नहीं हुआ, कोई भी स्थान-भ्रष्ट नहीं हुआ। यष्टिका-वर्तुल सिमटता गया, एक बार तो वह इतना छोटा हो गया कि लाठियों के सिवा और कुछ दिखाई ही नहीं देता था। एक क्षण में लाठियाँ तड़तड़ा उठीं और सारा जन-समूह भट्टिनी की जय-ध्वनि से मुखरित हो गया। मैंने आश्चर्य के साथ देखा कि लाठियों के दो मंच बन गए हैं । मुहूर्त भर में कुमारियों ने झुगार-रस से सराबोर द्विपदी-खण्ड का गान गाया, छोटे-छोटे काष्ठ-खंड खटखटा उठे, उस कर्कशता की पृष्ठभूमि में कुमारी-कंठ की सुरीली तान बहुत मीठी लग रही थी। कब मल्ल लोग फिर वर्तलाकार खड़े हो गए और कब मध्यवर्ती वर्तल की कुमारियाँ सिमट कर एक हो गई, यह निपुण भाव से निरीक्षण करने वालों की भी समझ में नहीं आया। यह नृत्यकौशल विचित्र