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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६८ बाण भट्ट की आत्मकथा था । जितना ही उचाल उतना ही तालानुग । कुमारियों ने विचित्र सुकुमार भंगिमा से भट्टिनी को घेर लिया, अत्यन्त लधु आभास से उन्हें उठाया और आगे वाले यष्टि मंच पर बैठा दिया। फिर विकट रासक- नृत्य चलने लगा । ऐसा जान पड़ता था कि भूतों के उत्सव में पार्वती बैठी हुई हैं । भट्टिनी का मुख सहज गम्भीर बना रहा। एक क्षण के लिये भी उसमें कोई विकार नहीं आया। कंटकी वृक्षों में खिली हुई चन्द्रमल्लिका की भाँति वह प्रफुल्ल मनोहर बदन अपने में आप ही परिपूर्ण था । वह उद्दाम मनोहर नृत्य चलता रहा, कांस्य-कोशी झनझनाते रहे और मुखर नूपुर-विराव के साथ काष्ठ-खण्डों की टंकार विचित्र ध्वनि से दिगन्तराल को मुखरित करती रही । | भट्टिनी के पीछेवाले मंच पर लोरिकदेव और उनकी रानी समा- सीन हुई। एक बार फिर वह नृत्य रुका। पुरोहित ने शंख-ध्वनि की और मंत्री ने धूप-दीप-नैवेद्य के साथ भट्टिनी को अध्यं दिया । लोरिक देव ने रजत के मनोरम थाल में नारिकेल, पूगीफल और तांबूले पत्र भट्टिनी को निवेदन किए। अत्यन्त गदगद कंठ से उन्होंने कहा-- ‘अनजान में जो उपेक्षा हुई है उसे क्षमा करना देवि, हमारा अहो- भाग्य है कि अज्ञात प्रतिस्पर्द्धि विकट, प्रत्यन्तवाड़व, आर्यमानरक्षक तत्रभवान् देवपुत्र तुवरमिलिन्द की नयनतारा अत्रभवती ने मेरे इस गृह को पवित्र किया है। मेरे दस सहस्र मल्ल आपके ही सेवक हैं। लोरिक देव गुण का दास है, सम्राट की भृकुटियों की उसने बराबर उपेक्षा की है । या तो वह समुद्रगुप्त के वंशजों का श्रानुगत्य स्वीकार करेगा या स्वतंत्र रहेगा। परन्तु देवि, आज गुप्तों का प्रतापानल निर्वा- पित है, मौखरियों का भुजबल अस्त हो गया है, धर्माचारहीन बौद्ध नरपति के निवीय शासन ने समूचे आर्यावर्त को विनाश की ओर धकेल दिया है, इस समय लोरिकदेव कहीं भी आशा की किरण नहीं देख रहा । देवि, घृणित म्लेच्छवाहिनी फिर से गिरिसकट के उस पार