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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म कथा २६६, एकत्र हो रही है । कौन है जो इस दुर्मद म्लेकुवाहिनी के इस पवित्र भूमि में आने से रोक सके १ कौन हैं जिसकी विशाल भ जाएँ इस समय गिरि संकट के कपाट का कार्य करेंगी ? कौन है जिसके प्रतापवह्नि की शिखा में दुर्दान्त म्लेच्छ शलभायमान होंगे । देवपुत्र ही ऐसे वीर हैं । आपके वियोग में वे कातर है। गए हैं, लोरिक देव की मल्ल- वाहिनी की उल्लसित अानन्दध्वनि अाज देवपुत्र को उद्बुद्ध करेगी । मुझे अन्नभवन की सेवा का अवसर प्राप्त हुअा है, इससे समूचे अर्या- वर्त की सेवा का अवसर अनायास मिल गया है। देवि, मुझे इस अवसर का प्रसाद प्राप्त हो ।' भट्टिनी के अखि सजल है। अाई । उन्हें नेि कातर दृष्टि से लोरिकदेव की ओर देखा । बोलीं---‘आर्य मुझे लजा दे रहे हैं । लोरिकदेव ने उन्हें विशेष बोलने का अवसर ही नहीं दिया । अंगुलि-संकेत के साथ ही साथ नानावाद्यों के तुमुल- निनाद के भीतर देव पुत्रनंदिनी की जयध्वनि पूँज उठी । भट्टिनी ने प्रवाल-किसलय के समान कोमल अंगुलियों से तांबुल पत्र छु दिए । पुरोहित ने दीघदीयित शंखध्वनि से दिगंतर कॅपा दिए । नृत्य-गीत- वाद्य की गगनविदारी ध्वनि के बीच यह अध्यदान समाप्त हुआ। मल्ल लोग संयत गति से तितर वितर हो गए। कुमारियों ने अभिराम भंगी से भट्टिनी को उठाया और देर तक नृत्य गति से उसे छोटे घर को प्रदीप्त कर रखा । जिस समय यह उत्सव समाप्त हुआ उस समय रात प्रायः अाधी बीत चुकी थी । | लोरिकदेव के वक्तव्य का एक अंश निश्चय ही मुझे सुनाने के उद्देश्य से कहा गया था। उससे इतना तो बिल्कुल स्पष्ट था कि उन्होंने कान्यकुब्जेश्वर के सामंतपद को अस्वीकार कर दिया है और स्वयं ही भट्टिनी की सेवा करने का संकल्प किया है। यह एक नई समस्या है। आज मेरे ग्रह अप्रसन्न हैं। मैंने कुमार कृष्णवर्धन की कुततावश अपने लिये और अपनी भनिी के लिये अनेक उलझनें